________________ चरित्रम् श्रो सदैववत्सा - वानकी ततोऽसौवै योजयित्वा स्वहस्तकौ // सावलिंगां च वन्दित्वा कुतः पृच्छति हे सखि॥४२३॥ आगतात्र कथं चैव ने काकिनी च दृश्यते // प्राहाहं सावलिंगा वे मालवे शुभदेशके // 424 // उज्जयिनीपुरीमध्या दागता नैककास्म्यहम् // मया साकं च मे भर्ताऽस्तीत्युक्त्वा च सा पुनः॥४२५।। पृच्छति त्वं च का किंच शुन्यारण्ये स्थितात्र वै॥ जिनप्रासादके वाले ध्यानलीना कथं तथा // 426 // ततः सा प्राह हेवाले मद्धृतान्तं शृणु प्रिये // पञ्चक्रोश इतो द्वारापुरीति नगरं खल्लु // 427 // भारतीस्पर्धया यत्र लक्ष्मीः प्रतिगृहे स्थिता // यं ब्राह्मी सगुणं चक्रे श्रीराश्लिष्यति तं खल // 428 // धरवीरश्च राजा वै विद्यते तत्करेषु च // असिलतावधूः शत्रून् बहून् नाप्नोति हे सखि // 429 // गृहणंती नासतीभावं तस्य राज्ञश्च धारणी // पट्टराझ्यस्ति नाम्ना वै तस्याः कुक्षौ च पुत्रिका // 430 // पश्चन्यश्च सुतेभ्योऽनुजाता लीलावती खबु // क्रमेण यौवनं प्राप्ता पितुर्वरस्य चिन्तनम् // 431 // शल्यं च दातुमर्हाऽहमभवं नैव संशयः // जणयं दुरंतचिंता पारावारं लिखिवइ बटुंति // इक्काविधुवंकन्ना ससालहि अयं कुणइ निच्चम् // पुत्रीचिन्ता नवत्येव पितुश्च कष्टदायिनी // 432 // सभाया मन्यदा राज्ञां राजांकेऽहं तु संस्थिता बन्दिजनमुखान्नुनं प्रभुवलसुतस्य च // 433 //