________________ श्री सदैववत्स चरित्रम् 20 यत्रांतर्जलवापिका जलभृतः पद्मावलीभि र्बभुः क्रीडति प्रसभं चकोरबतका हंसा मयूरादिकाः॥४०१॥ समासन्नं च तस्याथ सर एकं जलेन वै // पूर्णमासीच्च शोभाढयं फलपुष्पद्रुमादिभिः // 402 // कलहंसकुलै रम्यं जलकुर्कुटसंकूलम् // उल्लसद्भिश्च कल्लोलेः पालिभन्नैः सुशोभितम् // 403 // सोपानैः परितो बद्धं पद्मिनीखंडमंडितम // सेतुयुक्तं जलापूर्ण राजते तत्सरोवरम् / / 404 // संजातमजनेच्छः स कान्तया सह तत्र वै // रम्यां कृत्वा जलक्रीडा पाल्युपरि विवश च // 405 // सहकारसुवृक्षस्यांतिसुपक्वफलैस्तदा // प्राणवृत्तिं विधायाथ तच्छायाया मुपाविशत् // 406 / / तत्रातिनिकटे स्वर्गभुवनशोभकं खलु // श्रीयुगादीशप्रासादं सुवर्णकलशैस्तथा // 407 // कृतश्रेणिसुशोभाभियुतं मण्डपपंक्तिभिः // कृतपरंपराभिश्च सुस्थितशालभंजिकम् // 408 // द्वासततिसुराणां च कुलिकाभि मनोहरम् // स ददर्श ततो चित्ते चिन्तयति च निश्चितम् // 409 // प्रासादो जिनदेवानां दृश्यतेऽत्र सुशोभनः // इति ध्यात्वा स आनन्दयुतस्तत्र गतो द्रुतम् // 410 // देवतायाश्चनत्यर्थ मितः प्रासादमध्यतः ॥णकलकलारावं श्रुत्वा जाले व्यलोकयत् / / 411|| ज्य मिव दृष्ट्वा स प्रासादान्तः कुमारकः // पन्नी प्राहाथ हेभायें कथं तत्र व्रजाम्यहम् // 412 //