________________ श्री सदैववत्स | मृतिका दृतिका चैव सिक्के कार्ये तृणोपमाः // त्वं तु धीमन स्ववाक्यस्य पालकत्वात्सुवीरकः // 38 // // जे आवइसु धीरा विहमि अगदिआ अमछरिणो // परवसणे सुसहाया पुरिसा पुहविलंकरणम् लेन हवस ते तुष्टा सहसम्मि ततो वम // शृणु स प्राह हे देवि कृतार्थी दर्शनेन ते // 385 // संपन्नोऽग्नि ह्यतो जाने किमयागाये // देवी प्राह न मोघं वै देवानां दर्शनं किल // 386 // द्यूताधिकरसःप्राइम नर..!! तुटा नदा मल गृत त्वं संग्राम तथैव च // 387 // जयं देहि ततःसा के दादी का पार पायकलोह जरी चैव कपर्दिकां च शोभिताम् // 388 // तस्मै समर्पयामास सार्यादितके यः // जयो कपर्दयते च कपर्दिका बलात्तथा // 389 // वैरिलक्षरणे चापि क्षुरिकातो भविष्यति // ऊचे परं च हे राजन् अन्यस्मिन् दुःखदायक // 390 // मरेत्कायपि मां ननं सैवमुक्त्वा तिरोदधे // ततोसो सुवनो गच्छन् चिन्तयति च मे वरम् // 39 // तं दारिद्रयहारिच॥ राज्यप्रदायि तच्चैव नैवं टं श्रुतं न च // 322 // अहो मया मुभाग्येन येन लब्धं गुणाकरः // समुद्रश्च पापाणाकर एच॥ प्रलादो देवनपानां पंच प्रन्ति दरिद्रताम् // 393 //