________________ विषण्णचित्त आहाथ मातरं प्रत्यहं शिरः॥ स्वस्य छेदं कृत्वापि दास्याभि रुधिरं च ते // 372 // मन्दभाग्यात कदाचिच्च मम न रुधिरं यदि // निःसरेत् तदपि त्वं वै मम भार्यासकाशतः // 373 // नैव याच्यं वराकेयं त्वया मोच्या शुभानने // तच्छत्वा प्राह सा वृद्धा ह्येवमस्तु ततश्च सः // 374 // यावत् शिरसि खङ्गं वै वाहयति ततश्च सा // तावकाऽबला सा हि कुंडलादिस्वलंकृता // 375 // सा प्रत्यक्षीवभूवाथ युवाच मधुरं वचः।। असमसाहस त्वं भो मा कुरु साहसं मनाक् // 376 // उज्जयिनीपूरस्याहं प्रतिष्टानपुरस्य च // अधिष्ठात्री च नाम्नाऽस्मि हरसिद्धिश्च देविका // 377 // उज्जयिनीतश्च युष्माकं पुण्यानुभावतः खलुः // त्वत्साहाय्यविधानार्थ साध तवागतास्मिन चा३७८॥ तव सत्वपरीक्षायै महााक्षाररणं मया // विकुर्वितं च तावद्वै तव पत्न्यास्तपापि च // 379 // मुखशोषो भया वै भो प्रपापि च विकुर्विता // टस्त्वं च परं विद्वन् सात्विकानां शिरोमणिः // 38 // स्ववाचा पालने शूरो यतो जलं गृहीतवान् // रुधिरं मूल्यतो वै त्वं कलत्राा निजस्य च // 381 // दुष्करं यजगत्यां च स्नेहभाजः परं खलु // अंगीकुर्वन्ति सिद्धे च कार्य तद्गणयन्त्यपि // 382 // अंगीकृतंतु मन्यन्ते निःसत्वा स्तृणवच्च तत् // उपाध्यायश्च वैद्यश्च प्रतिभू (क्तनायिकः // 383 // FARE