________________ 0 // दीहारूढा तं करे-जं वइरी नकरती // दीहपालट्टइ रावणह पछर नीरतरंति // 0 // परं भवतु संजातं सन्मानं च नृपस्य वै / निजबुध्ध्या च तन्नाशं करिष्यामि हि सत्वरम् // 243 // - यस्यबुद्धि बलं तस्य निर्बुद्धेस्तु कुतो बलम् / वने सिंहो मदोन्मत्तः शशकेन निपातितः // 244 // - स्वबुद्धिवैभवात्तेन मन्त्रिणेतावता ध्रुवम् / निष्कासनं कुमारस्य सूपायो वै निरूपितः // 245 // - अतिमलिने कर्तव्ये भवति खलाना मतीवनिपुणाधीः। तिमिरेऽपि कौशिकानां रूपं प्रतिपद्यते दृष्टिः।।२४६॥ माषेण पूरितं लौहं पात्रं राज्ञे सुमन्त्रिणा / कृष्णवस्त्रयुगेनाथ सहितमुपदीकृतम् // 247 // प्रोढेंगालकयुक्तंच दृष्ट्वाराजावदरत्वलु // तदपूर्वचभोमंत्रिन् किमेतत्प्राह देव सः // 248 // - अहंचतामकार्ष भो एते लोका यथोपदाम् // कुर्वन्ति नृप उचे वै हीदक् प्राभृतकं क्व न // 249 // दृष्ट मन्त्र्याह राजान मीदृगेव तवाधुना / प्राभृतं दृश्यते राजा कस्मादाह सुवक्ति सः // 250 // वैद्यो गुरुश्च मंत्री च यस्य राज्ञः प्रियंवदाः / शरीर धर्म कोशेभ्यः क्षीप्रंस परिहीयते // 25 // - सुलभाः पुरुषा राजन् सततं प्रियवादिनः / अप्रियस्य च पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः // 252 // अप्रियाण्यपि पथ्यानि ये वदंति नृणामिह / त एव सुहृदः प्रोक्ता अन्ये ते नामधारकाः // 253 //