________________ श्री सदैववत्स चरित्रम् पाणिग्रहणकाले वै धनं दत्तं न कोपितः / याचमानोऽपमानं वै प्रापितोऽस्ति ततोऽधुना // 232 // करिष्यति स तेनातस्तद्वैरज्ञोधनं खल। चिंतितं च प्रधानेन मनसि विकृतं महत् // 233 // पातःशुन इवाज्ञस्य विस्मयेन क्रमांतरे / सिंहस्येव न वीरस्य कदापि पर संभवः // 234 // प्रियं वा विप्रियं वापि सविशेषं पुरार्पितम् / प्रत्यर्पयंति के नात्र दृष्टांत उर्वरा खलु // 235 // अतश्चप्रसरन्धीरो नोपेक्ष्यो भूतिमिच्छता / अन्यथा खलु नाशःस्यादत्र का वै विचारणा // 236 // य उपेक्षेत शत्रु स्वं प्रसरंतं यथेच्छया / रोगानालस्यसंयुक्तः स शनैस्तेन हन्यते // 237 // | तथा चाटुवचस्त्वेन ममापराध एवहि / मनसि रक्षितोऽनेन चेयन्ति दिवसानि वै // 238 // अवसरं च जानाति राजनीतिबुधो यतः / कृतं वेत्ति किलायं वै अवश्यं संविधास्यति // 239 // वहेदमित्रं स्कंधेन यावत्कालविपर्ययः आगतेतुनिजे काले भिंद्याद् घटमिवाश्मनि // 240 // // जिमजिम केसरि पायउहढे-जिमजिम विसहर नउलीवटे दीणवयण जइ जंपेसूर-तेहडवक्कउ देसेपूर // 0 // ममाधुना ततो रुष्ट मिव दिनं च दृश्यते / विपरीतानि पश्यामि लक्षणानि न संशयः // 241 //