________________ श्री सदैववत्स ततो राजादिभि दत्तैः स प्रभूतधनैश्चमूम् // कुमारो योजयामास चतुरंगां यतःस्मृतम् // 56 // धर्मे विवाहे विपदि द्विषःक्षये, प्रियासु नारीष्वदनेषु चैव // यशस्करे कर्मणि मित्रसंग्रहे, धनव्ययोऽष्टासु न गण्यते बुधैः // 27 // कुमारेणाथ यच्छुन्यं पूर्व दृष्टं पुरं महत् // मनुष्यवसतिं तत्र चिकीर्षुः सत्वरं गतः // 58 // हरसिद्धिप्रसादेन पुरोध्वंसकरं स तम् // राक्षसं बहुपूजभिरनुकूलं चकार ह // 59 // | तततस्तदनुमत्या स वासयति स्म तत्पुरम् // तुष्टेन रक्षसा तस्मै राज्यं दत्तं पुरस्य वै // 6 // न श्रीः कुलक्रमायाता शासने लिखितापि न // खङ्गेनाकृष्य भुंजीत वीरभोग्या वसुंधरा॥६१॥ | आरामवाटिकोद्यानवापी कूपसरोवरैः // रमणीयं कृतं तेन पुरं शोभान्वितं ततः // 6 // तत्पुरेऽथ कुमारोऽसौ मध्यभागे वरस्थले // सततं देवतापूज्यचरणनखदीधितेः // 3 // | श्रीमद्वीरजिनेशस्याप्रतिमप्रतिमान्वितम् // जिनप्रासादमीलहशिखरमकारयत् // 6 // वीरकोटपुरं नामास्थापयत् तत्पुरस्य च // नन्दराजश्रियं पूर्वदृष्टां सत्कृत्य चाददे // 65 // - वत्सःसोऽक्षयकोशोऽभूद्राज्यं शास्ति च नीतितः // यतोऽलंक्रियते राज्यं न्यायेनैव सदा भुवि // 66 //