________________ चरित्रम् श्री सवार इह जगति मित्राणि चतुर्धा च भवंति हि // तेषु मित्रद्वयं सर्वेः खीकर्तव्यं सदा यतः // 29 // त्यजेन्मालासमं मित्रं त्यजेन् मित्रं तुलासमम् // न त्यजेन् मेरुसदृशं नदीतुल्यं च न त्यजेत् // 30 // विचार्येति कुमारेण वणिविप्रौ तृतीयकः // क्षत्रियः सुपरीक्ष्येवं तदा मित्रत्रयं कृतम् // 31 // ते त्रयोऽपि कुमारेण सुहृदोऽथ दिवानिशम् // साई गच्छन्ति तिष्ठन्ति चानुकूल्येन हर्षतः // 32 // यतो धनादिभिः पूणे सदौदार्यगुणेन च // प्रख्यातकीर्तिके तस्मिन् के नेच्छंति हि मित्रताम् // 33 // द्रविणैः कृपणो याति सेव्यतां महता मपि // सेव्यः स्वर्णाद्रि रुन्निद्रैः किं सदैव न दैवतैः // 34 // KET सरोऽपि मेरुं परितो भ्रमन्नो स्वर्णस्य मासं लभते कदापि॥ तथापि नो मुंचति तत्समीप माज्ञा बलिष्ठा किल जंतुवगें // 35 // धनवान् जडचित्तोऽपि भुवि कैः कै नै सेव्यते // जलैः पूर्णस्तटाकोऽत्र सेव्यते विश्वजंतुभिः // 36 // अथैकदा कुमारस्य स्वस्थाने सुस्थितस्य च // नानाविधसुखाप्तस्य प्राप्तो वैदेशिको जनः // 37 // भ्रमणाद्दहुदेशेषु वीक्षिताश्चर्यसंततिः॥ आगतं सहसा दृष्ट्वा तं वत्सः परिपृच्छति // 38 // भवान् कुतः समायातो वद त्वं भो महामते // तुंबवनपुरादत्र तेनोक्त मागतोऽस्म्यहम् // 39 //