________________ यो सदैववत्स तस्य पराक्रमं दृष्ट्वा पौरलोकाश्चमत्कृताः / अहोऽयं धीर इत्येवं जल्पति स्म परस्परम् // 3 // आत्मानं प्रकटीचक्रे न पूर्व कथमप्यसौ // स्वयं प्रकटयामास स्वात्मानमेव विक्रमात् // 84 // अकृत्वा पौरुषं या श्री विकाशिन्यपि किं तया // नरद्वोऽपि चाश्नाति दैवाद्भूमिगतं तृणम् // 85 // Ke पृष्टस्ततो भूपतिना कुमारो रूपं स वीराप्तिकंचुकस्य // विज्ञापयामास च तातकृत्यं मंत्रीरितं क्रोधवशादि सर्वम् // 86 // तच्छ्रुत्वा नृपतिः प्राह ह्यहोऽस्य पितुरद्भुतः // स्नेहो विलोक्यते पुत्रो यल्लोकोक्त्या वहिष्कृतः॥८॥ वत्सो जगाद हे राजन् कोऽपराधः पितुर्मम // विषयेऽस्मिन्नयं दोषो ह्यस्त्येव मम कर्मणः // 8 // जगति प्राणिनः सर्वे कर्मणां वशवर्तिनः // भुंजते तादृशं कर्म यादृशं समुपार्जितम् // 89 // प्रददात्युत्सवे शोकं शोके संमदसंपदम् / अन्यथा विदधत् सर्व बलीयः कर्म केवलम् // 90 // AE अवश्यंभाविभावानां प्रतीकारो भवेद्यदि // तदा दुःखैर्न बाध्यते नलरामयुधिष्ठिराः // 91 // राजाप्याह कुमारेन्द्र त्वयोक्तं सत्यमेव तत् // न पूर्वमर्जितं कर्म कोऽपि लंघयितुं क्षमः // 92 // लक्ष्मी माता पिता विष्णुः स्वयं च विषमायुधः // तथापि शंभुना दग्धः प्राककृतं केन लंध्यते // 93 //