________________ चरित्रम् श्री सदैववत्सा दारिद्र्यवचनंचेदं कविभिः कथितं भुवि / शुभभाग्यप्रधानं तु ह्यन्यच्छृणु रमावचः // 98 // गुरवोयत्र पूज्यंते धान्यं यत्र सुसंचितम् / अदंतकलहो यत्र तत्र शक्र वसाम्यहम् // 99 // वाक्प्रपंचैश्चराज्ञा वै निरुत्तरीकृतेन वै / रुष्टेन स स्वसौधाद्धि बहिःकृतोत्पमानतः॥ 100 // युतं योयमदूताभं हालं हालाहलोपमम् / पश्येदारान् यथांगारान् स भवेद्राजवल्लभः // 101 // प्रोक्ते प्रत्युत्तरं नाह विरुवं प्रभुणाच यः / न समीपेहसत्युच्चैः स भवेद्राजवल्लभः // 102 // ततः स शिक्षितोमात्रा चोत्तरंनैवदीयते / पितुः संमुखमप्येव मुक्तमेतच्चसूरिभिः // 103 // // पडिवयणंचियगुरुणो-मुम्मुरजलणुव्वदहइ भनतं-परिणामे पुणच्चिय दावानल इव विणासइणेहम् / / // किं बहुणा विणउच्चिय अमूलमंतं जएवसीकरणम् / इहलोए परलोए देइसुहाण मणबंठिय फलाणम् // अर्थपतौ भूमिपतौ बाले वृद्धे तपोधिके विदुषि // योषिति मूर्ख गुरुषु विदुषा नैवोत्तरंदेयम् // 104 // मातृपित्राप्तराजार्यातिथिभातृतपोधनैः / वृद्धवालाबलावैद्यापत्यदायादकिंकरैः // 105 // Ka स्वसृसंश्लिष्टसंबंधिवयस्यैः सार्धमन्वहम् / वागविग्रहमकुर्वाणो विजयते जगत्रये // 106 // मुख्यसौधादहिभूत: सभायोऽसौतदा ततः / सुतनिष्कासनादूना तन्माता निकटेऽवसत् // 107 //