________________ सदैववत्स चरित्रम् 65 नहि तद्विद्यते किंचिद्यदर्थेन न सिध्यति // वर्धतेस्म क्रियाः सर्वाः पर्वतेभ्य इवापगाः // 45 // इति श्रेष्ठिवचः श्रुत्वा कुमारो वदति स्म तम् // श्रेष्ठिस्त्वां संकटे क्षिप्त्वा गंतुमिच्छाम्यहं नहि // 46 छायार्थी सेवते वृक्षं श्रान्तो गजपतिर्यथा // पातयत्येव तं वृक्षं तथा नीचजनोऽपि हि // 47 // स्वस्यैवाश्रयदातारं पातयति च संकटे // गजतुल्यो यतो नास्मीति श्रुत्वोवाच तं धनी // 48 // सत्यं भो सजनाद्यात्र स्थाने स्थास्याम्यहं तव // कार्य स्वं च निजं कृत्वा ह्यागच्छेरत्र सत्वरम् // 49 // तत्प्रतिपद्य वत्सेनापि प्रोक्तं तं तदा वचः // कल्येऽत्र भो महाश्रेष्ठिन्नागमिष्याम्यहं खलु // 50 // तदा श्रेष्ठी तलारक्षमाकार्य विनयेन सः॥ नम्रीभूयावदद्रक्षं नृपं गत्वा वदाधुना // 51 // चौरस्य प्रतिभू भूत्वा यदेकं याचते दिनम् // कृत्त्वैवं सोमदंतः स तं मोचयितुमिच्छति // 52 // आगामिनि दिने चौरश्चात्रागंतुं वदत्यपि // आगमे प्रतिभूस्तस्य धनी मुक्तो भविष्यति // 53 // यदि चेत् स पुनश्चौरः कल्ये नात्रागमिष्यति // तदा क्षात्रे गतं सर्व धनं श्रेष्ठथर्पयिष्यति // 54 // किञ्चाधिकं नृपस्यापि लदस्वर्ण प्रदास्यति // ज्ञापयित्वेति राज्ञे त्वं शीघ्र मादेश मानय // 55 // तलारक्षण गत्वाथ नृपस्य सन्निधौ द्रुतम् // श्रेष्ठिनो वाचिकं सर्व कथितं स्वाधिकारतः // 56 //