________________ विक्रमोऽहं नृप श्चास्मि त्वय्यद्य रुष्टतां गतः॥ अतः खङ्गं गृहाण त्वं तच्छ्रुत्वाऽभूत् भयाकुलः // 6 // Ka यावदितस्ततो भीतो विलोकयति खर्परः // तावदाज्ञा स खड्नेन हतो मुनि पपात कौ // 65 // ततो लोकान् समाकार्य भूपतिना स्वकं धनम् // तेभ्यः समर्पितं तत्तु गृहीतं ते नृपाज्ञया // 66 // ke शोकातुरा सुरंगायां स्थिता श्रृंगारसुंदरी // महिष्यपि समाश्वास्य स्वांतःपुरे च प्रेषिता // 7 // प्रतिज्ञा पूरणाद्धृष्टो नृपोऽथ समहोत्सवम् // प्रवेश मकरोत्पुर्या प्रसन्ना भूत् ततः प्रजा // 6 // al नृपेण पंच राझ्यस्ता दुष्टा निष्कासिता गृहात् // पट्टराज्ञी शुशीला सा कृता या तु पतिव्रता।।६९॥ चौरोपद्रवमुक्तास्ते जना हर्ष मवाप्नुवन् // राजश्वौरोऽस्ति दुर्ग्राह्यो ह्ययं खर्परचौरवत् // 7 // एवंविधं तलारक्षवाक्यं श्रुत्वा नराधिपः॥ चौरेण किं गृहीतं व इत्यपृच्छन् महाजनम् // 7 // तदा महाजनै रुक्तं पूर्वमिव समश्यया // स्वामिस्तद्वस्तु कंदर्पघमूरःस्थलमंडनम् // 72 // राज्ञा तेषां वचोभावं विज्ञायोक्तं महाजनाः हृद्यस्ति कामसेनायाः कंचुकः किं स चोरितः // 3 // E दक्षचूडामणी राजन्नसीत्युक्तं महाजनैः // खल्वेष कंचुकः पूर्व कामदेवगृहे स्थितः // 74 // क्षात्रं पपात तन्मध्ये गतश्चौरकरे तदा // सोऽस्माभिरद्य दृष्टोऽय मुपलक्षित इत्यपि // 75 //