________________ चरित्रम् श्री सदैववत्स स एव मिलितो नून मेषु संभाव्यते मम // विचायति नृपप्रीत्यै प्रोक्तं तया विदग्धया // 52 // भ्रातरो भागिनेयोऽस्ति ममाय मपि सांप्रतम् // युष्माभिः रक्षणीयोऽसौ भागो देयश्च लोप्त्रतः॥५३॥ Ka तैरुक्तं तत् करिष्याम इति कृत्वा तदालयात् // निःसृत्य मार्ग यागत्य चौराः प्रोचुःपरस्परम् // 54 // भगिन्या भागिनेयत्वादस्माक मप्ययं तथा // निशीथेऽथमहाचौरास्ते राजभवनं गताः // 55 // राजा तु सकलं तेषां सर्वेषां दुष्टकर्मणाम् // चराचरं समीपस्थो विलोकयति तत्परः॥ 56 // पूर्वगृहीतसंकेताः महिष्यः पञ्च तावता // समीपे चौर्यकर्तृणां सशृंगाराः समागताः // 57 // षष्ठचौरनिमित्तं ते रेका राझ्यपरापि च // आकारिता पर तत्र नागता सा पतिव्रता // 58 // तयोक्तं रे महामूर्खा विक्रमं च नृपोत्तमम् // संप्राप्य मम भोगेच्छा कथं स्यादपरैः सह // 19 // अथ राजा तु तत्सर्व विलोक्य चौरचेष्टितम् // विस्मितो मौन मादाय तत्रैव संस्थितःस च // 60 // IAS रत्नपेटी गृहीत्वा ते ततः सर्वेऽपि निर्गताः॥ उत्पाटनाय ताः सर्वा विक्रमाय समर्पिताः // 1 // नपेणापि च ताः वहिवेतालाय समर्पिताः॥सांगायां च संप्राप्ता दकित्य शिलां ततः॥१२॥ - एतावता गता रात्रिरथ दिनोदये नृपः // द्वारस्थांश्चतुरो हत्त्वा बभाण खपरं प्रति // 3 //