________________ श्री सदैववत्स चरित्रम् तलारक्ष उवाचेदं हेस्वामिन् मत्ससमीपतः // कर्तुकामोऽसि यं दण्डं सुखेन कुरु तं नृप // 40 // | विलोकितोऽपि सर्वत्र मम चौरो न लभ्यते // किं करोमि महाराज खर्परचौरवद्भुवि // 1 // राजा प्राह तलारक्ष चौरोऽस्ति खर्परश्च कः // तलारक्षोऽपि तद्रूपं कथयति नृपं प्रति // 82 // KE स्तंभतीर्थे धनी कोऽपि भद्रनामाऽवसत्पुरा // जिनदासः सुतस्तस्य तत्पुरे परिणायितः 83 // तद्वासालयपार्श्वस्थे कोऽप्येको वटपादपे // वसतिस्म महायक्षस्तेन दृष्टा वणिग्वधूः // 84 // तस्यामतीवलुब्धःसन् भोक्तुमिच्छुः पुनः पुनः॥ आगतोऽपि न शक्नोति स्पृष्टुं तत्पतितेजसा // 85 // प्रयत्नं कुर्वतस्तस्य यक्षस्यैवं मनोरथात् / / वर्षाणि च व्यतीतानि बहुनि व्यर्थचेष्टया // 86 // अथ प्रवहणारूढो जिनदासो महाधनी // द्वीपांतरं गतो दूरे व्यापाराय महामतिः // 7 // तद्भार्या च गृहे स्थित्वा स्वपिति स्वालये स्वयम् // तदा स समयं प्राप्य यक्ष एवं चकार ह // 8 // द्वितीयदिवसे यक्षो जिनदासस्वरूपकम् // विधाय तत्पितुः पावे समागत्य ननाम सः // 89 // पित्रा पृष्टं तदा वत्स कथं पश्चात्समागतः // जिनदासस्वरूपोऽसौ यक्षो वदति तं वचः // 10 // K मया तु प्रागनभ्यासान्नौकायां स्थीयते नहि // तेन चाहं परावृत्तो ह्यन्यो हेतुर्न विद्यते // 91 //