________________ सदैववत्स पर्यकिकामथारुह्य राजमार्गे चचाल सा // पटं नाच्छादयामास यानबेश्या ह्यपत्रपा // 658 // IS एवं चोद्भटवेषा सा व्रजन्ती भूपसन्निधौ // चतुष्पथे स्थितैः सर्वैर्जनै रपि विलोकता // 659 // E केनापि श्रेष्ठिना दृष्टः कंचुकः स तया धृतः॥ विचारितं मनस्येवं नूनं मे एष कंचुकः // 660 // गतोऽस्ति क्षात्रपातेन पूर्व सैव मयाधुना // दृष्ट इति विचार्यासौ स्वहट्टादुत्थितस्ततः // 661 // Ke पुनस्तन्निश्चयं कर्तुं वेश्यापार्श्वे जगाम सः तस्याः पर्यकिकादंडलग्नो मार्गे व्रजत्यथ // 662 // मुखेन च तया साधं वार्तालापं करोति सः // पश्यति नयनाभ्यां च तमेव स्वीयकंचुकम् // 663 // = पृष्टं तेन ततस्तस्यै वर्तते कंचुकस्त्वयम् // अतिमनोहरो वेश्ये त्वयैषोऽधिगतः कुतः // 664 // इत्यादिकपटालापैः स्वकीयमेव कंचुकम् // निश्चित्य तं स्वहढे स व्यवहारी समागतः // 665 // KE अकत्र तेन सर्वेऽथ मेलिता व्यवहारिणः // स्वकंचुकस्वरूपं च तेभ्यः प्रोक्तं सुबुद्धिना // 666 // | ततश्च श्रेष्ठिन: सर्वे मिलित्वा ते महाजनाः // सालवाहनराजाने गता द्रुतं समुत्सुकाः // 667 // राज्ञापि बहुमानेन तेभ्यः पृष्टं महाजनाः // ममानाकारिताः पार्श्वे यूयं कस्मात्समागताः // 668 // तैरुक्तं भेा महाराज विज्ञप्त्यै वयमागताः॥ पराभवति राज्ञोक्तं भवतामपि कोऽपि किम् // 669 // 57