________________ चरित्रम् 55 अक्काप्युवाच भोवैद्य सर्व सत्यं भवद्वचः॥ घिसृष्टोऽथ तया वैद्यो जगाम स्वालयं प्रति // 613 // श्री सदैववत्स ततोऽक्कया द्रुतं दासी कुमारानयने वरा // प्रेषिता सूर्यप्रासादे सा गत्वोवाच तं प्रति // 614 // त्वां सज्जनाव्हयत्यक्का स्वामिनी स्वालये मम // कुमारश्च तदा चित्ते चिंतयति स्वबुद्धितः // 615 // Ka अन्यत्रापि मयाकापि यावत् पञ्चदिनावधि // स्थातव्यमेव सन्मानादाव्हयति तु मामियम् // 616 // तस्या एव गृहे गत्वा ततस्तिष्ठामि तद्वरम् // इति विचार्य तन्मित्रं कुमारः सोऽब्रवीद्वचः // 617 // अथाहं कामसेनाया गृहे यास्यामि साम्प्रतम् // तच्छूवा सत्वरं प्राह कुमारं सुरसुंदरः // 618 // मित्र ते गमनं तत्र श्रेयस्करं न विद्यते // धनालाभादियं दुष्टा दुःखे त्वां पातयिष्यति // 619 // KE हसित्वोक्तं कुमारेण शृणु मित्र ममाङ्गजम् // सा स्पृष्टुमपि वालाग्रं न शक्नोति परं च किम् // 620 // श्रुत्वा तद्वचनं प्राह कुमारं सुरसुंदरः॥ विश्वासो नैव वेश्यानां करणीयः कदापि वै // 621 // जएण जुवर्णणय-घेसा संगणद्युत्तमित्तेण कोदीसइ नरोजए-अवसाणे जो नहुविगुत्तो // // // आंखे रमइ मनहसे जणजाणे एरत्त पण ते मारे पुरुषने जं कठं करवत्त // // कुमारः प्राह भो मित्र चैतासां चरितं त्वहम् // सर्व वेनि त्वया चित्ते भेतव्यं न मनागपि // 22 //