________________ चरित्रम् 54 श्री सदैववत्स तदा न मानितं पूर्ण धनमद्य गृहाण तत् // मा त्वमप्यथ गृह्णीया नूनमेककपर्दकम् // 11 // मर्मविद्धवचोजिस्ता मित्येवं जहसुर्जनाः // कुमारस्योपकारं च श्रेष्ठयपि बह्वमन्यत // 12 // ततो धनी धनं सर्वं गृहीत्वा स्वालये गतः // नेत्रे प्रमार्जयंती स्वे साकापि स्वगृहे गता // 93 // कामसेनाथ तां दृष्टवा चिंतयति स्वमानसे // अनया दृश्यते नून मानितमेव तद्धनम् // 14 // आगतायै तदभ्याशे तस्यै पृष्टं तया ततः // मातराप्तं धनं सर्व मभुक्त्वा तदिनत्रयम् // 15 // तया प्रोक्तं सुतेऽहंतु समक्षं पश्यतां नृणाम् // वैदेशिकेन केनापि बाढं तत्र विगोपिता // 9 // | पृच्छति कामसेना तां मातः कथं विगोपिता // तदाक्कयापि सर्वोपि न्यायस्तस्यै निवेदितः // 97 // कामसेनाथ चित्ते स्वे चिंतयति पुनः पुनः॥ पुरुषं बुद्धिमन्तं तं पश्याम्यह मपि स्वयम् // 98 // KE कामसेना विचार्येति नाटकस्य मिषेण सा // गताथ सूर्यप्रासादे प्रारब्धं नाटकं तया // 99 // तत्र नाटयं सृजंती सा कुमारं तं विलोक्य तु // चिते चिंतयति स्वीये बहुहर्षवती सती // 600 // // आस्यं पूर्णशशी विलोचनयुगं विस्मेरमिंदीवरम् // कण्ठः कंबु सुरश्च कांचनशीला स्कन्धी च पूर्णों घटौ //