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________________ न्यायं कुर्वस्त्वमेवं भो सज्जन मद्धनं मुधा // निर्गमयसि कस्मात्त्वं सोमदंतोऽब्रवीत्तदा // 7 // कुमारः प्राह भो श्रेष्टिन् यदि त्वं वचनं मम // नोवंधयिष्यसि न्यायं करिष्यामि तदा तव // 8 // एव मुक्त्वा कुमारेण तावन्मितं धनं ततः // आनायितं बलात्कारादादर्शन समन्वितम् // 81 // परं कोऽपि न जानाति यदयं बुद्धितः कथम् // न्यायं करिष्यति स्वच्छमिति जातं स्वभावतः // 8 // REआदर्शाग्रे धनं मुक्त्वा ततः प्रोक्तं मनस्विना // वेश्ये धनं गृहाणेद मादर्शप्रतिबिम्बितम् // 3 // समीपस्थं धनं किन्तु हस्तेनापि मनाक् त्वया // न स्पृष्टव्यमिति श्रुत्वा वेश्या प्राह धनार्थिनी // 4 // कथमेवंविधो न्यायः सत्पुरुष त्वया कृतः॥ उक्तं तदा कुमारेण मदीयं वचनं श्रृणु // 85 // व्यवहारिसुतोऽयं ते किं स्वप्नेनागतो गृहे // प्रत्यक्षेणाथ वा सत्यं वद वेश्ये सविस्तरम् // 86 // प्रत्यक्षेणागतोऽयं चेत् प्रत्यक्षस्थमिदं धनम् // यदि स्वप्नसमायातो गृहाण प्रतिबिम्बितम् // 8 // भवति सदृशं कार्य यत् स्वप्नप्रतिबिम्बयोः // अनुभवं स्वयं कृत्वा जानाति विमलो जनः // 8 // श्रुत्वा चैवंविधं न्यायं सभ्याः सर्वे चमत्कृताः॥ साध साध वदंतोऽस्य शशंसबद्धिकौशलम् ॥रणा वेश्यां विगोपयंतस्ते सर्वे लोका उचुस्तदा अस्माभिः कथितं वेश्ये गृहाण त्वं धनार्धकम् // 10 //
SR No.600423
Book TitleSadaivvatsakumar Charitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMatisagar, Manishankar Chaganlal Shastri
PublisherRatilal Keshavlal
Publication Year1932
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size15 MB
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