________________ चरित्रम् श्री सदैववत्स च तस्या गृहे नरः कोऽपि समागबति सा तदा // गृह्णाति षोडशाधिकं द्रम्मपंचशतात्मकम् // 22 // अथैकदा तया स्वप्ने वेश्यया स्वगृहागतः // सोमदंतो यदा दृष्टो रेमे तेन समं च सा // 23 // ततः सा मेलयित्वा स्वं समूहं प्रातरेव तत् // स्वरूपं कथयामास ताभ्यस्ता अप्युचुस्तदा // 24 // सोमदंतगृहे गत्वा शीघ्रं तस्य समपितः // नियमितं धनं स्वीयं गृहाण त्वं समाश्रया // 25 // तच्छ्रुत्वाथ तया तस्य गृहे सद्व्यवहारिणः // मार्गयितुं च तद् द्रव्यं निजाका प्रेषिता स्वयम्॥२६॥ तत्र गत्वा हि तद्रव्यं मार्गितं नार्पितं परम् // तदा समुपविष्टा सा लंघयितुं तदालये // 27 // KE अर्धद्रव्यप्रदानेन जनै रुक्तं प्रतोषय // मुधैवाहं कथं द्रव्यं यच्छामि धनिको वदत् // 28 // पश्यामि च कथं कूटं कृत्वेषा पार्श्वतो मम // द्रव्यं गृह्णाति तेनोक्तं कोलाहलप्रयोजनम् // 29 // अद्यैवं तद्विवादस्य दिनं जातं तृतीयकम् // द्वयोरेकोऽपि लोकोक्तं वचो नांगीकरोति वै // 30 // E तच्छ्रुत्वा कौतुकोत्साही कुमारो वक्ति तं प्रति // भोमित्र गम्यते तत्र कौतुकं च विलोक्यते // 31 // | इत्युत्तवासौ गतस्तत्र समित्रस्तं स्थिता जनाः // दृष्ट्वा कथयितुं लग्ना निर्णयोऽयं करिष्यति // 32 //