________________ नलशोधने तिलक-. सगे:३ मञ्जर्या = // 149 // उदाहरणम्। = ना जाना II AIनIताबाद भक्ष्यमाणेषु लोकेषु राक्षसेन दुरात्मना / द्रुतं गर्भपुरं राजा प्राप्तो बन्धुजनैः समम् // 41 // क्रव्यादोऽपि जनं कृत्स्नं व्यापाद्य पुरवासिनम् / कूपसोपानमार्गेण कालादत्राप्युपेतवान् // 42 // स हत्वा बन्धुभिः सार्द्ध राजानं पितरं मम / ररक्ष केवलं कन्यां मामेकां दारकर्मणा // 43 // इतो दिनत्रयावं तस्मिन् मां वोढुमिच्छति / मनसा शरणं देवीं वैरोठ्या स्मृतवत्यहम् // 44 // सोऽपि स्वमप्रसन्ना मे ददौ रक्षोधनं वरम् / तच्च सत्यमिवाभाति भीष्मेऽत्र त्वं कुतोऽन्यथा // 45 // तद् नीत्वा मत्पितुः खड्गमितो गुप्तो भव क्षणम् / मृगया विनिवृत्तोऽयं नूनमायाति राक्षस: // 46 // तद्विद्याराधनध्यानं कुर्वन्नेष निहन्यताम् / न दुर्लभा हि धीराणां जयश्री छलयोधिनाम् // 47 // तथेति तद्वचः कुर्वन् सोऽपि संप्राप्य तत्क्षणम् / जघान राक्षसं वीरो वैरोट्यावरगर्वितः // 48 // परिणीय च तां भूयस्ततो निर्गन्तुमुत्सुकः / स सिषेवे वटद्वारं प्रियावित्तसमन्वितः // 49 // कदाचित पूर्ववत कैश्चित संप्राप्तः सलिलार्थिभिः / स कृष्ट्वा पोतनाथेन कारितः सह सङ्गमम् // 50 // पोतेशस्तद्वधूलुब्धः क्षिप्त्वा प्रवहणे निजे / रजन्यां जलधेमध्ये तं प्रमत्तमपातयत स पतन गिलितः शीघ्रं महामत्स्येन वारिधौ / दधौ जठरमध्येऽपि धैर्य गाथार्थचिन्तया // 52 // वाडौं तं क्षिप्तमाख्याय सार्थेशेनापि तत्प्रिया / अर्थिता रतिमातीर्थ ययाचे नियमावधि // 53 // सोऽपि तं वेलया क्षिप्तं दारयद्भिस्तिमिङ्गिलम् / कान्तीशस्यैव कैवर्तः संप्राप्य प्रांभृतीकृतः . // 54 // IAFI II II IIIIre. J // 149 //