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________________ एवंविहाई कोऊहलाई पिक्खंतओ समुदस्स / जा वच्चइ कुमरवरो ता पंजरिओ भगइ एवं // 429 // भो भो जइ जलइंधणपमुहहिं किंपि अस्थि तुम्हाणं / कज्जं ता कहह फुडं बब्बरकूलं समणुपत्तं // 430 // संजत्तिएहिं भणि बब्बरकूलस्स मंदिराभिमुहं / .. वच्चह जेण जलाइं गिण्हामो मा विलंबेह // 431 // तावत्पारिक-ऊर्ध्वपारस्थः पुमान् एवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण भणति-वक्ति // 429 // भो भो लोकाः! यदि युष्माकं जलेन्धनप्रमुखैः किमपि कार्यमस्ति तत्तर्हि स्फुट-प्रकटं यूयं कथयत यतो बब्बरकूलं समनुप्राप्तंबब्बरकूलाख्यं बिन्दरं सम्प्राप्तमस्तीत्यर्थः // 430 // एतद्वचनं श्रुत्वा सांयात्रिकैः-पोतवगिभिर्भणितं-उक्त बर्बरकूलस्य बिन्दराभिमुख व्रजत-यूयं चलत येन जलादिकं गृह्णीमः अत्रार्थे मा विलम्बवं-विलम्ब मा कुरुतेत्यर्थः // 431 // तत्र बिन्दरे प्राप्ताश्च लोकाः ४२९-स्पष्टम् / ४३०-अत्र कुमार प्रति पञ्जरिकस्य तथा कथना प्रति तदीयोऽनुरागः केवलं "भवन्ति भव्येषु विपक्षपाताः" इति न्यायेन प्रतीयते / ४३१-स्पष्टम् / SISUSTUSKUCo36
SR No.600403
Book TitleSirisiriwal Kaha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri, Bhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1963
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size15 MB
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