________________ अभयेनाऽपि रत्नानि कस्मावस्येति चिन्तया / जज्ञे मृगयमाणेन वृष्णियुत्सृजतीति किम् ? // 933 // ततोऽसावतिलोभेना-ऽभयेनाऽऽनाय्य तद्गृहात् / स्वगृहे बन्धयांचवे रत्नव्युत्सर्गकाक्षिणा // 934 // तत्र सोऽशुचिदुर्गन्धिं प्रारेभे स्रष्टुमुच्चकैः / यदा तदा पुनर्गेहं तस्यैवाऽनाय्य तत्क्षणात् // 935 // भूयो रत्नानि तद्गेहे सृजन्तं वीक्ष्य विस्मितः / अभयश्चिन्तयामास किं नु मायेयमामरी // 936 / / उत्ताऽन्यत्किञ्चिदाहोश्चि-दस्य पुण्यं विज़म्भते / ऊर्णायव्यपदेशेन चित्रता द्धतीहशीम् // 937 // किमेवमथवा शके निश्चिनोम्यधुनैव हि / इति बुद्ध्या समाहूय तं मेदमिदमब्रवीत् // 938 / / वैभारपर्वते भद्र ! विषमत्वान्महीपतिः / आरोहत्यतिकृच्छ्रेण प्रत्यहं सपरिच्छदः // 939 // अतस्तत्र सुखं मार्ग कारय प्रातरेव हि / येन तत्सूनवे कन्या स्वां महीशः प्रयच्छति // 940 // कारयामीति संलप्य सोगाद् गेहं निजं ततः / देवाऽनुभावतो रात्रौ रथवाऽभवद् गिरौ // 941 // प्रातर्दृष्ट्रवाऽभयो मार्ग वैभारधरणिधरे / तावदेवाऽनुभावोऽय-मिति पित्रे न्यवेदयत् // 942 // पुनर्निश्चेतुमूचे सो-ऽभयेनाहय यद्यहो!!। इहाऽऽनीय महासिन्धुं लपयस्यङ्गजं निजम् // 943 // ततस्तदम्वुशुद्धाऽऽत्मा राजपुत्रीमनिन्दिताम् / अवश्यं त्वत्सुतो भद्र ! प्रातरुद्धोदुमर्हति / / 944 // निशम्य तद्वचो यावत तुष्टेन प्रत्यपद्यत / तेन त्रिदशशक्त्याऽऽगाद् बहिस्तावनिधिः // 945 // B4-% लागलवर