________________ मणिपति 27 // II-IALORECA2-% समिनारभ्यते कार्य तत्समानीयतेन पद् / आरब्धे तु तदाऽऽत्मा वा समानीयोपरम्यते // 577 // ततो मया प्रतिज्ञात-पूरणाऽऽहष्टचेतसा। तां समर्प्य स्वबन्धुभ्योऽ-चिन्तीदं भवभीरुणा // 548 // अहो !! ईगपि स्त्रीणां स्पष्टं दृष्ट्वा विचेष्टितं / येषां ताभ्यो विरक्तिर्न पशुभ्यस्ते कथं पृथक? // 579 // सा कस्यचित्कुले नारी जायतां शीलवत्यपि / सर्वाऽवस्थास्वविश्वास्या किं पुनः शीलवर्जिता ? // 580 यत्तु केनाऽप्यनार्येण मन्मथोन्मथितेन वा / वर्ण्यते साऽपि हा !! कष्ट-मज्ञानं तदिदं यथा // 581 // मम तावन्मतमेतदिति किमपि यदस्ति तदस्तु / रमणीभ्योऽरमणीयवरमन्यत् किमपि न वस्तु // 582 // प्रियादर्शनमेवाऽस्तु किमन्यैर्दर्शनान्तरैः / प्राप्यते येन निर्वाणं सरागेणापि चेतसा // 583 // इति स्त्रीचेष्टितत्रासाद् मया भीतेन संसृतेः / अगृह्यत व्रतं सूरे-रन्ते त्यक्त्वा गृहादिकम् // 584 // एतस्मृत्वा मया प्रोक्तं महाभयमुपासक / अन्यस्य संभवोऽस्माकं न कुतश्चिद् भवाहते // 585 // अथ तृतीयके यामे निरगाद् धनदो मुनिः। प्रतिजागरितुं सूरि गिरीन्द्रमिव निश्चलम् // 586 / / ततस्तेनापि तं दृष्ट्वा भयात् प्रविशतोदितम् / अहो !! अतिभयं कीदृक् चमत्कृतिकरं परम् // 587 // तदाऽऽकाभयेनोक्तं त्यक्तससभयस्य ते / भगवनतिम कस्माद् अकस्मादभिधीयते // 588 // स प्राह श्रूयतामादा-वहं नातिदवीयसि / उज्जयिन्या वाहनामे वास्तव्यः क्षत्रियोऽभवम् // 589 // BAमकरुनकर IR 27 //