________________ मणिपवि // 26 // मकम्. अन्यदाऽन्येन हरिणा समागत्य बलीयसा / यूथान्निर्घाटितो भक्त्वा संयुगे पापकर्मणा // 55 // ततो यथात परिभ्रष्टो भ्राम्यन्नुच्चारतस्ततो। अद्राक्षं स्वामिह स्थाने शङ्कभिः कीलिताकम // 51 // स्वां दृष्टया क्वैष दृष्टस्स्यात पुमान् पूर्व मयेदृशं / ध्यायता संस्मृता जाति-स्त्वद्भाग्यरेव पर्विका // 52 // पर्वमानत एवेमे परिज्ञायौषधी पुनः / चिकीत्सा ते मयाऽकारि प्रागभ्यासवशादिति // 553 // संदिदानीं पेस्तस्माद् यथोद्दालयितुं क्षमः / यूथं भवामि तद् भद्र ! तथेदानी विधीयताम् // 54 // मयोक्तं सांप्रतं भद्र ! त्वय्यकारणवत्सले / इंदृश्यप्युपकताऽस्मिन चेद् धिग्मां ततः खलम् // 565 // आत्मानं संयतं सन्तो मन्यन्ते तावदुत्सुकाः / उपकर्तर्युपकारं न यावत् कुर्वतेऽधिकम् // 56 // तदेहि यन्मम प्राणः कार्य किश्चित प्रसिध्यति / साधयाम्यधुना तत्ते-ऽवश्यं जीवितदायिनः // 557 // न्यवाsi गतस्तेन साधं तत्र प्रदेशतो। यत्राऽऽस्ते तद्रिपुः शाखा-मृगो यूथस्य मध्यगः // 558 सतो मामेकवृक्षस्य मूले संस्थाप्य वानरः / तेन साध समारब्धो योधु सबीर्यशालिना // 559 // तयोश्च कुर्वतो युद्धं सादृश्यान्न मया कपिः / समलक्ष्यत संभ्रान्त्या यस्य पक्षश्चिकीर्पितः॥५६॥ ततोऽसौ वीक्ष्यमाणेऽपि मयि तेन विदारितः / नखे-दन्तैस्तथाऽत्ययं प्राणशेषो यथाऽभवत // आगतश्च कथश्चित्स नश्यन् नश्यन् मदन्तिकं / गलद्रुधिरसेकाई-वपुरुत्रस्तलोचनः // 562 // // 26 //