SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 174
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रक्त- मुक्तावली॥७६॥ सुखमनुभवति / अतो निजनिजविषयगत्वराणि स्वेन्द्रियाणि निजायत्तानि कृत्वा सर्वैर्गुप्तेन्द्रियगणैरेव भाव्यम् // 70 // - अथ ३०-प्रमाद-विषये-- सहु मन सुख वांछे दुःखने को न वांछ, नहि धरम विना ते सौख्य ए संपजे छ / इह सुधरम पामी को प्रमादे गमीजे ?, अति अलस तजीने उद्यमे धर्म कीजे // 1 // ___ इह सर्वे लोकाः सुखं वाञ्छन्ति, दुःखं केऽपि नेहन्ते / परन्तु स्वर्गमोक्षसुखनिदान धर्म विना सुखमनुभवितुं न शक्यते। ईदृशं धर्ममासाद्य ये तत्र प्रमादाऽऽलस्यादिकं विदधति, तेभ्योऽधिका विमूढाः पापपरायणाः पामराः के सन्ति ? न केपीत्यर्थः / अतः प्रमादं त्यक्त्वा चेह परलोके सुखसौभाग्यादिदातरि धर्मे सत्याणिवर्गेण सदैव यतितव्यम् // 71 // .. इद दिवस गया जे तेह पाछा न आवे, धरम समय आले कां प्रमादे गमावे / धरम नवि करे जे आयु आले वहावे, शशिनृपति परे त्यूं सोचना अंत पावे // 72 // किञ्च-भोजीवा ! यदिनं याति तद्दिनं पुनवाऽऽगच्छति, इति पश्यद्भिर्भवद्भिः प्रमादालस्यादिपारवश्येन धर्मसमयो वृथा नगमनीयः धर्ममकुर्वता निजाऽऽयुथैव हार्यते प्रान्ते च स शशिराज इस पश्चात्तापमुपैति तत्कथा धर्मवर्गे 9 प्रबन्धे द्रष्टव्या // 72 // अथ ३१-साधुधर्म-विषये, शार्दूलविक्रीडित छन्दसिजे पंच व्रत मेरु-भार निवहे निःसंग रंगे रहे, पंचाचार धरे प्रमाद न करे जे दुःपरीसा सहे। पांचे इन्द्रि तुरंगमा वश करे मोक्षार्थने संग्रहे, एवो दुष्कर साधु-धर्म धन ते जे ज्यू ग्रहे यूं वहे // 73 // भाग्यादिदातरि धर्म सामुढाः पापपरायणाः पामरा के सामनुभवितुं न शक्यते। ईदृशं
SR No.600398
Book TitleSukta Muktavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupendrasuri, Gulabvijay Upadhyay
PublisherBhupendrasuri Jain Sahitya Samiti
Publication Year1940
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy