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________________ धमेवा एकमुक्तावली- BSRCISRODARA किच-येषां सदने लक्ष्मीस्तिष्ठति तद्गृहे सरस्वती न विद्यते, येषां गृहे महती विद्या विराजते, तत्र लक्ष्मीन निवसति / / यत्रैते / वर्तेते, तत्र कुटुम्बो न वर्तते / यत्रैते त्रयो विद्यालक्ष्मीकुटुम्बा वर्तन्ते, तस्य जन्माऽभयकुमारवत्सफलम्भवति // 28 // अथ ९-सद्विवेकविषयेहृदय घर विवेके प्राणि जो दीप वासे, सकल भव तणो ते मोह अंधार नाशे।। परम धरम वस्तू तत्त्व प्रत्यक्ष भासे, करम भरम कीटा स्वांगतेता विनाशे // 29 // येषाम्प्राणिनां हृदयसदने विवेकात्मको दीपो विभाति, तेषामखिलभवभ्रमणकारीणि मोहरूपतमांसि नश्यन्ति / ततस्ते परमस्य धर्मवस्तुनस्तत्त्वम्पश्यन्ति / पुनस्तत्र दीपे निपतन्तः कीटा:-कर्मशलभास्तत्कालं क्षीयन्ते / अयमाशयः-यस्य हृदये विवेको दीपक इव प्रज्वलति, तस्मिन्नविवेको विलयं याति / ततः स यथास्वरूपं वस्तुतत्त्वं जानाति // 29 // है विकल नर कहीजे जे विवेक विहीना, सकल गुण भर्या जे ते विवेके विलीना / जिम सुमति पुरोधा भूमि गेहे वसंते, उगति जुगति कीधी जे विवेके उगते // 30 / / | इह हि विवेकहीना नरा विकला अधमा निगद्यन्ते / विवेकवन्तो जनाः सकलगुणलसन्त उत्तमेषु कार्येषु रज्यन्ते / विवेकादेव वस्तुनः सदसदूपता ज्ञायते / अतस्तद्वन्त उत्तमास्तद्विहीना विकला उच्यन्ते / यथा सुमतिनामा कश्चित्प्रधानो निजराजानं ममिगृहेऽक्षिपत् / परन्तु स राजा ततोऽपि सङ्कटाद्विवेकगुणयोगात्सदसत्त्वं विचार्य निर्मुक्तो जातः / एतत्कथा ग्रन्थान्तरे वर्तते / इह तु प्रसङ्गत इयत्येवाऽदर्शि // 30 // अप मापनाच्दाश॥२०॥ // 49 //
SR No.600398
Book TitleSukta Muktavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupendrasuri, Gulabvijay Upadhyay
PublisherBhupendrasuri Jain Sahitya Samiti
Publication Year1940
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size28 MB
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