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दंसणिणो आहवित्तु पुच्छेइ । किं सग्गस्स सरूवं, तेसिं एगो कहइ एवं ॥ ७२ ॥ पियसंगमाउ अवरो, सग्गो नो अत्यि इत्य भुवणम्मि । अवरो भणेइ जं जं, सुहजणयं स स हवे सग्गो ॥ ७३ ॥ एवं सग्गसरूवं, तकहियं पुष्फचूलनिवदइया । नो मन्नेइ जओ सा, तद्दिठिई सयं सुविणे ॥ ७॥ अह इक्कारिय रन्ना, अन्नियउत्तो नमित्तु परिपुट्ठो । तियसालयस्सरूवं, जहडियं साहए सई ॥ ७५ ॥ तं सुणिय पुष्फचूला, विणयावणया भणेइ गुरुपुरओ । भयवं ! ममं व सुविणे, किं तुम्ह वि पिक्खिया सम्गा ॥ ७६ ॥ वागरइ गुरू भद्दे ! जिणवयणपईवभासियमणाणं । सग्गसरूवं अनं पि, सबमम्हाण पुण पयर्ड ॥७७॥ निवदझ्या वि पमाणं, जिणवयणंमि जाणित्ता । पुच्छेइ गुरुं सग्गो, पाविज्जइ केण कम्मेण ॥ ७८ ॥ तो वागरइ गुरू वि हु, भद्दे ! जिणदेसियाइ दिक्खाए । सबसुहाणं ठाणं, लब्भइ सग्गो पवग्गो वि ॥ ७९ ॥ इय सुणिय भग्गदुग्गइमग्गा रंगंतरंगसंवेगा । सिरिपुप्फचूलनरवर-पाणपिआ विन्नवेइ गुरुं ॥८॥ भयवं दइयं पुच्छिय, पवजं तुम्ह पायमूलम्मि । गहिउँ नरजम्मदुमं, सुहफलफलियं करिस्सामि ॥ ८१ ॥ इय भणिरी निवभज्जा, नमिऊण गुरुं विसज्जए हरिसा । तत्तो नियदइयं पइ, जंपइ महुराइ वाणीए ॥ ८२ ॥ तुम्ह पसायं सामिय ! भोगुवभोगा मए सया भुत्ता । इन्हिं कुणह पसायं, पवजं जेण गिण्हेमि ॥ ८३ ॥ तमयंडवज्जपाय, पिव सुणिय वयं निवो पयंपेइ । सुयणु मह पिम्मपउमं, मा उम्मूलेसु करिणि व ॥ ८४ ॥ सत्तंगसंगयं पि हु, रजं अंतेउरं तहा नयरं । मह तुह विरहे ससिमुहि ! सुन्नं रन्नं व पडिहाइ ॥८५॥ अह चिट्ठसि न कहं पि हु, ता तं अंगीकयत्वया संती । गिव्हसु मह गिहि भिक्ख, जेणणुजाणामि दिक्खढें ॥ ८६ ॥ रन्नो तहत्ति पडिव-जिऊण तं वयणममयपाणं व दीणाइयाण दाणं, दाऊणं कप्पवल्लि ब॥ ८७॥ सवत्थाभयदाण, उग्घोसिय चेइएम