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श्रीविंशति || किरिया फलसाविक्खा जं तो तीए ण सुक्खमिह परमं । तम्हा मुगाइभावो लोगिगमिव जुत्तिओ सुक्खं ॥ १६ ॥ सव्वूसगवा
४२० सिद्ध
सुख काप्रकरण वित्ती जत्थ तयं पंडिएहिं जत्तेण । सुहुमाभोगेण तहा निरूवणीयं अपरितंतं ॥ १७ ॥ जत्थ य एगो सिद्धो तत्थ अणंता भवक्ख
विशिका ॥२४॥
|यविमुक्का। अन्नुनमणाबाहं चिट्ठति सुही सुहं पत्ता ॥१८॥ एमेव भवो इहरा ण जाउ सन्ना तयंतरमुवेइ । एगेए तह भावो सुक्खस| हावो कह स भवे ॥ १९ ॥ तम्हा तेसिं सरूपं सहावणिययं जहा उण स मुत्ति । परमसुहाइसहावं नेयं एगंतभवरहियं ॥ २० ॥ इति सिद्धसुखविंशिका विंशतितमी समाप्ता २०॥ कृतिः सिताम्बराचार्यहरिभद्रसूरेधर्मतो याकिनीमहत्तरासूनोः॥
काऊण पगरणमिण जे कुसलमुवज्जियं मए तेण । भव्वा भयविरहत्थं लहंतु जिणसासणे बोहि ॥ २१॥ इति श्रीवीसी. | प्रकरणं समाप्तम् ॥ ग्रन्थानम् ५०० श्लोकाः॥
॥२४॥