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शुद्धिः
श्रीविंशति संजोयणाइरहिओ भोगोवि इमस्स कारणओ॥८॥दव्वाईसंजोयणमिह बत्तीसाहिगं तु अपमाणं । रागेण सइंगालं दोसेण सधू-18/१४ भिक्षाकाप्रकरण मग जाण ॥९॥ वेयण वेयावच्चे इरियट्ठाए य संजमवाए । तह पाणवत्तियाए छटुं पुण धम्मचिंताए ॥ १० ॥ वत्थंयाहाकम्मा
विशिका ॥१६॥ इदोसदुटुं विवज्जियध्वं तु । दोसाण जहासंभवमेएसिं जोयणा नेया॥ ११॥ इत्येव पत्तमेएण एसणा होइऽभिग्गहपहाणा । सत्त
चउरो य पयडा अन्नावि तहाविरुद्धत्ति ॥ १२॥ संसट्ठमसंसट्ठा उद्धड तह होइ अप्पलेवा य । ओग्गहिया पग्गहिया उज्झिय-13 धम्मा य सत्तमिया ॥ १३ ॥ उदिट्ठ पेह अंतर उझियधम्मा चउत्थिया होइ । वत्थेवि एसणाओ पन्नत्ता वीयरागेहिं ॥ १४ ॥ | सिज्जावि इहं नेया आहाकम्माइदोसरहियावि । तेऽवि दलाविक्खाए इत्थं सयमेव जोइज्जा ॥ १५॥ एसावित्थीपंडगपसुरहिया जाण सुद्धिसंपुग्ना । अनापीडाइ तहा उग्गहसुद्धा मुणेयव्वा ॥१६॥ एसाविहु विहिपरिभोगओ' य आसंगवज्जियाणं तु । वसही सुद्धा भणिया इहरा उ गिहं परिग्गहओ ॥ १७॥ एवं आहाराइसु जत्तवओ निम्ममस्स भावेण । नियमेण धम्मदेहा
रोगाओ होइ निष्वाणं ॥ १८ ॥ जाणइ असुद्धिमेसो आहाराईण सुत्तभणियाणं । सम्मुवउत्तो नियमा पिंडेसणभाणयविहिणा य ४॥ १९॥ इति भिक्षाविंशिका त्रयोदशमी १३ ॥
भिक्खाए पश्चंतो जइणों गुरुणो करति उवओगं । जोयंतर पवज्जिउकामो आभोगपरिसुद्धं ॥१॥ सामीवेणं जोगो एसो है सुत्ताइजोगओ होइ । कालाविक्खाइ तहा जणदेहाणुग्गहट्ठाए ॥२॥ एयविसुद्धिनिमित्तं अद्भागहणट्ठ सुत्तमोगट्ठा । जोगति
॥१६॥ | गेणुवउत्ता गुरुआणं तह पमम्गंति ॥३॥ चिंतेइ मंगलमिहं निमित्तसुद्धिं तिहा परिक्खंता । कायवयमणेहिं तहा नियगुरुयणसंग-II
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