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________________ दंडकप्रकरणम् अर्थ ॥४०॥ 8|एक एकसे अधिक होते है (सबेविइमेभावा) यह सबही भी भाव (जिणामएणतसोपत्ता) हे जिनेश्वर देव मैंने अनंती|| वेर पाया है॥४०॥ सहितम् है संपइतुझंभत्तस्स, दंडगपयभमणभग्गहिययस्स । दंडतियविरइसुलहं, लहुममदितुमुक्खपयं ॥४१॥ (संपइतुझंभत्तस्सदंडगपयभमणभग्गहिययस्स) अब चौवीश दंडकोके स्थानकके विषे भमनेसे (निवृत्त) भागा हुवा है मन जिसका ऐसा तुमारा भक्त एसा मुझको (दंडतियविरइसुलहं) मन वचन और काया यह तीनदंडका | विरामसे सुलभ एसो (लहुममदितुमुक्खपयं) मोक्ष पद मेरेकों जलदी देवो ॥४१॥ सिरिजिणहंसमुणीसर, रज्जेसिरिधवलचंदसीसेण । गजसारेणलिहिया, एसाविन्नत्तीअप्पहिया ॥४॥ | (सिरिजिणहंसमुणीसर ) श्री जिनहंसमुनीश्वरके (रजेसिरिधवलचंदसीसेण) राज्यके समय श्री धवलचंद्रउपाध्या-| |यके शिष्य (गजसारेणलिहिया) गजसार मुनिने लिखा है (एसाविन्नत्तीअप्पहिया) यह विज्ञप्ति अपनी आत्माके |हितके अर्थे ॥४२॥ ॥ इति हिन्दी अनुवादसहितं दंडक प्रकरणं समाप्तम् ॥ . ॥४०॥
SR No.600385
Book TitleJivvicharadi Prakaran Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttasuri Gyanbhandar
PublisherJinduttasuri Gyanbhandar
Publication Year1928
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size22 MB
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