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________________ जंतिमणुआ) और मनुष्योंकाभी जाना सब दंडकोके विषे होता है (तेउवाऊहिंनोजंति ) परंतु तेउकाय और वाउका-18 यसें नही आते ॥ ३७॥ वेयतियतिरिनरेसु, इत्थीपुरिसोयचउविहसुरेसु । थिरविगलनारएसु, नपुंसवेओहवइएगो ॥ ३८॥ | HI (वेयतियतिरिनरेसु) तीन वेद तिर्यंच और मनुष्यको होते है ( इत्थीपुरिसोयचउविहसुरेसु) और चार प्रकारके || देवोके विषे स्त्री वेद तथा पुरुष वेद होता है (थिरविगलनारएसु) और पांच स्थावर विकलेन्द्रि और नारकके विषे | (नपुंसवेओहवइएगो) एक नपुंसक वेदही होता है ॥ ३८॥ है पज्जमणुबायरग्गी, वेमाणियभवणनिरयवंतरिया । जोइसचउपणतिरिया, बेइंदितिइंदिभूआउ ॥३९॥ (पज्जमणुबायरग्गी) पर्याप्ता मनुष्य और बादर अग्निकाय (वेमाणियभवणनिरयवंतरिया) वैमानिक भुवनपति |नारक और व्यंतर (जोइसचउपणतिरिया) ज्योतिषि चौरिन्द्रि और पंचेन्द्रि तिर्यंच (बेइंदितिइंदिभूआउ) तथा दोइन्द्रि ६ तेइन्द्रि पृथ्वीकाय और अप्पकाय ॥ ३९॥ .. वाऊवणस्सईचिय, अहियाअहियाकमेणमेहुति । सवेविइमेभावा, जिणामएणंतसोपत्ता ॥ ४० ॥ (वाऊवणस्सईचिय) वाउकाय और वनस्पतिकाय यह सब निश्चय करके (अहियाअहियाकमेणमेहुंति) अनुक्रमे || RECAUSESAKACAUSACK GAGROCRACCUSANSAR ALA
SR No.600385
Book TitleJivvicharadi Prakaran Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttasuri Gyanbhandar
PublisherJinduttasuri Gyanbhandar
Publication Year1928
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size22 MB
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