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________________ अर्थ — स्थितिपणे परिणम्या जे जीव तथा पुद्गल तेने स्थितिना ओभानो हेतु ते अधर्मास्तिकाय द्रव्य कहियें ते पण लोक परिमाण असंख्य प्रदेशी छे. सर्वद्रव्याणां आधारभूतः अवगाहकस्वभावानां जीवपुद्गलानां अवगाहोपष्टंभकः आकाशास्तिकायः, स चानन्तप्रदेशः लोकालोकपरिमाणः । यत्र जीवादयो वर्त्तन्ते स लोकः असंख्यप्रदेशप्रमाणः, ततः परमलोकः केवलाकाशप्रदेशव्यूहरूपः स चानन्तप्रदेशप्रमाणः । अर्थ - सर्व द्रव्यने आधारभूत अवगाह स्वभावी जे जीव तथा पुद्गलने अवगाहनानो ओभानो हेतु ते आकाशास्तिकाय द्रव्य कहियें. तेना प्रदेश अनंता छे. लोक तथा अलोक रूप छे तेमां जे क्षेत्र जीव तथा पुद्गल तथा धर्मास्ति| काय अधर्मास्तिकाय छे ते क्षेत्रने लोक कहियें अने केवल एक लोक मात्र आकाशज जिहां छे तेने अलोक कहियें एटले | जे लोक ते जीवादि द्रव्य सहित अने जीवादिक द्रव्य जिहां नथी तेने अलोक कहियें ते, अलोकना प्रदेश अनंता छे, अवगाहक धर्मे सर्व द्रव्य एमां समाय छे. कारणमेव तदन्त्यं सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः ॥ एकरसवर्णगन्धो द्विस्पर्शः कार्यलिंगी च ॥ पूरणगलनस्वभावः पुद्गलास्तिकायः स च परमाणुरूपः । ते च लोके अनन्ताः एकरूपाः परमा
SR No.600385
Book TitleJivvicharadi Prakaran Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttasuri Gyanbhandar
PublisherJinduttasuri Gyanbhandar
Publication Year1928
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size22 MB
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