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________________ नय चक्रसार मूळ ॥ ९८ ॥ सर्वमां वर्त्तना करे ए पक्ष सत्य छे जे आगमने विषे ठाणांगसूत्रना आलावामां छे. किं भंते अद्धासमयेतिवुच्चत्ति ? गोयमा जीवा चेव अजीवा चेव एटले काल ते जीव तथा अजीवनो वर्त्तमानपर्याय छे तेना उत्पाद व्ययरूप वर्त्तनाने काल कह्यो छे ते कालने अजीव द्रव्यमां गण्यो तेनो आशय एछे जे जीव वर्त्तनाथी अजीववर्त्तना अनंतगुणी छे ते बहुलता माटे कालने अजीव गवेष्यो छे केमके कालनी वर्त्तना अजीव ऊपर अनंति छे अने जीव ऊपर तेथी थोडी छे माटे. तथा विशेषावश्यकभाष्यमध्ये न पश्यति क्षेत्रकालावसौ तयोरमूर्त्तत्वात्, अवधेश्च मूर्त्तिविषयकत्वात् ; वर्त्तनारूपं तु कालं पश्यति द्रव्यपर्यायत्वात्तस्येति तथा बावीसहजारीमध्ये तथा कालस्य वर्त्तनादिरूपत्वात् पर्यायत्वात्, द्रव्योपक्रमः | उपचारात् तथा भगवत्यंगे १३ तेरमा शतक मध्ये इहां पुद्गलवर्त्तनानी अपेक्षायें कालने रूपी गवेष्यों छे. | तत्र गति परिणतानां जीवपुद्गलानां गत्युपष्टंभहेतुर्धर्मास्तिकायः, स चासंख्येयप्रदेशलोकप्रदेशपरिमाणः । अर्थ - हवे पंचास्तिकायनुं भिन्न भिन्न लक्षण कहे छे, जे गति परिणामीपणे परिणम्या जीव तथा पुद्गल तेने गतिना ओभानो हेतु ते धर्मास्तिकाय द्रव्य कहियें. ते धर्मास्तिकाय असंख्याता प्रदेश परिमाण छे. लोकमां व्यापी छे, लोकमान छे, लोकना एक एक प्रदेशे धर्मास्तिकायनो एक एक प्रदेश ते अनंत संबंधीपणे छे ए धर्मादि त्रण द्रव्य अचल अवस्थित अक्रिय छे. | स्थितिपरिणतानां जीवपुद्गलानां स्थित्युपष्टंभहेतुः अधर्मास्तिकायः, स चासंख्येयप्रदेश लोकपरिमाणः । बालाव बोधसहित 11 96 11
SR No.600385
Book TitleJivvicharadi Prakaran Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttasuri Gyanbhandar
PublisherJinduttasuri Gyanbhandar
Publication Year1928
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size22 MB
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