SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 203
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तथा जेने पोतानो आनंद पोता पासे न होय ते करे, पण जे संपूर्ण चिदानंदघन तेने लीला होयज नही. धर्माधर्मौ विना नांगं, विनांगेन मुखं कुतः ॥ मुखं विना न वक्तृत्वं तच्छास्तारः परे कथं १ अने मीमांसादिक पांच भूत कहे छे. तेमां पण चार भूत तो जीवपुद्गलना संबंधे उपना छे, अने आकाश ते लोकालोक भिन्न द्रव्य छे. तत्र पञ्चानां प्रदेशपिंडत्वात् अस्तिकायत्वं । कालस्य प्रदेशाभावात् अस्तिकायता नास्ति, तत्र काल उपचारत एव द्रव्यं न वस्तुवृत्त्या ॥ एते असत्यपणानुं निराकरण करी आगमनी साखे कार्यादिकने अनुमाने द्रव्य छ ठहरे छे, माटे तेहिज मानवा तेमां पांच द्रव्य सप्रदेशी छे, ते प्रदेशना पिंडपणा माटे अस्तिकायपणो पांच द्रव्यने छे. अने छठो कालद्रव्य तेने प्रदेश नथी ते माटे अस्तिकायता नथी तिहां काल ते मुख्यवृत्तियें द्रव्य नथी, उपचारथी द्रव्य कहेवाय छे. जेम वस्तुगते धर्मास्तिकायादिक द्रव्य छे तेम काल द्रव्य नथी. जो ए कालने पिंडरूप द्रव्य मानियें तो एनो मान किहां छे ? जो मनुष्यक्षेत्रमां काल द्रव्य मानियें तो बाहिरना क्षेत्रमां नवपुराणादिक तथा उत्पाद व्यय कोण करे छे ? अने जो चौद राजलोकमां व्यापी मानीयें, तो असंख्यात प्रदेश मानवा जोइयें; अने प्रदेश मानवे करी अस्तिकाय थाय, अने जो रेणुक असंख्याता मानियें, तो लोकप्रदेश प्रमाण रेणुक थाय ते वारें असंख्याता काल द्रव्य थाय. ते तो अनंत द्रव्य मान्यो छे माटे ए कालने पंचास्तिकायना वर्त्तनारूप पर्यायने आरोपे द्रव्य मानियें. केमके अस्तिकायता नथी. अने
SR No.600385
Book TitleJivvicharadi Prakaran Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttasuri Gyanbhandar
PublisherJinduttasuri Gyanbhandar
Publication Year1928
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy