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________________ आगम सार ८. ॥ निरंजणं निकल अयल, देवअणाइ अणइ अणंतं । चेयणलरकण सिद्धसम, परमप्पासिवसंतं ॥५॥ प्रकरणम् ___ अर्थ-कर्म अंजनथी रहित निरंजन छु कलंकरहित छु अयल केहतां पोताना स्वरूपथी किवारे चलायमान थाउं नही परमदेव छ जेनी आदि नथी तथा जेनो अंत नथी चेतना लक्षण छ सिद्ध समान छं संतसत्ता मयी छु.. जीवादिसद्दहणं, सम्मत्तं एस अधिगमो नाणं । तत्थेव सया रमणं, चरणं एसो हु मुरकपहो ॥६॥ अर्थ-जीवादिक छ द्रव्य जेवा छे तेवा सद्दहवा ते समकित अने छ द्रव्य जेवा छे तेहवा गुणपर्यायसहित जाणे जाते ज्ञान जाणवू ते छ द्रव्य जाणीने अजीवने छांडे अने जीवना स्वगुणमा स्थिर थयीने रमे ते चारित्र कहियें ए81 ज्ञानदर्शन चारित्र शुद्धरत्नत्रयी ते मोक्षनो मार्ग छे माटे ए ज्ञानदर्शन चारित्रनो घणो यत्न करवो ए रत्नत्रयी पामीने प्रमाद करवो नही तिहां निश्चय व्यवहारनी गाथा. निच्छय मग्गो मुरको, ववहारो पुन्नकारणो वुत्तो। पढमो संवररूवो, आसवहेउ तओ बीओ ॥७॥ ___ अर्थ-निश्चे नयनो मार्ग ज्ञान सत्तारूप ते मोक्षy कारण छे एटले मोक्ष छे अने व्यवहार क्रिया नय ते पुण्यनुं कारण कह्यो पहेलो निश्चयनय संवर छे अने निश्चयसंवर निश्चे नय ते एकज छे जूदा नथी बीजो व्यवहार नय ते आश्रव नवा कर्म लेवानो हेतु छे एटले शुभ पुण्यकर्मनो आश्रव थाय छे अने अशुभ व्यवहारें अशुभ कर्मनो आश्रव थाय छे कोइ3॥ 8 पूछे जे व्यवहार नय आश्रवन कारण छे तो अमे व्यवहार नही आदरसुं एक निश्चे मार्ग आदरसुं तेने उत्तर कहे छे.
SR No.600385
Book TitleJivvicharadi Prakaran Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttasuri Gyanbhandar
PublisherJinduttasuri Gyanbhandar
Publication Year1928
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size22 MB
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