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अणुमन्नसु ओसहं मज्झ || ३७७ ॥ एयं सावज्जेहि, अन्नेहि वि ओस हेहि अवणेमि । तं तुज्झ न कप्पिस्सइ, ता निरवज्जं दहिं भुंज ॥ ३७८ ॥ तो सुलहदहिकरणं, विहरंतो गोउलेसु रायरिसी । वीयभए संपत्तो, एगागी खमिसिंगव्व ॥ ३७९ ॥ तत्थ उदायण
ओ, केसी नामेण चैव अस्थि निवो । रज्जं पुण सचिवेहि, गसियं कहूं व घुणएहिं ॥ ३८० ॥ जाणतो वि हु केसी, तेसि सरुवं न किंपि जंपेई । नियमाउलेण ठविए, ते पिक्खर तमिव भत्तीए । ३८१ ॥ अह ते उदायणमुर्णि, आगयमवगम्म संकिया सव्ये । चिंतंति एस अम्हे, गसिप हु उग्गिला वसई ॥ ३८२॥ इय ते अप्पभरणं, पावा बुग्गाहयंति केसिनिवं । जंपति माउलो तु, पत्तो तवचरणनिव्विन्नो ।। ३८३ ।। ता गिन्हिस्सइ रज्जं, एसो मा वीससेसु तमिमस्स । केसी जंपर गिन्हउ, रज्जमिमं माउलस्सेव ॥ ३८४ ॥ सचिवा भणति दिन्नं, रज्जं पुन्नेण न उण अन्नेण । अन्नह मुत्तूण सुयं, को जामेयस्स तं देइ ॥ ३८५ ॥ इय धुत्तेर्हि तेर्हि, स भामिओ माउलंमि गयनेहो । पुच्छर कि कायव्वं, भणति ते दावसु विसं ति ॥ ३८६ ॥ भुंजइ दहि ति नाउँ, सेतं. सविसं दवावए केसी । पसुपाली हत्थेणं, संसारे किन्न संभवइ ।। ३८७ ।। सचिवा पुण अन्नेसु वि, भिक्खाभवणे तस्स महिरिसिणो । सविसं दावंति दहिं, विद्धी लोभस्स मापं ॥ ३८८ ॥ अह मुणिविहरियदहियाउ, देवया तं विसं हरिय भणइ । मा इह गिन्हिज्ज दहि, मुणिवर ! जं लहसि विसमीसं ॥ ३८९ ॥ अह तस्स चत्तदहिणो, वाही वढ ओस गिन् । अवहरइ विसं देवी, एवं जा तिन्निवाराओ ।। ३९० ॥ अन्नदिणे देवीए, कहवि पमत्ताइ सो दहि सविसं । भुंजइ तो संजाओ, जरुव्व देहंमि संजाओ || ३९१ ॥ अह विसभावेण मुणी, पज्जतं अपणो मुणिऊण । कयआराहणकिञ्चो, गिन्हेई अणसणं विहिणा || ३९२ ॥ देवीहयविसविरिओ, मासेण उदायणो खवियकम्मो । पावियकेवलनाणो, निव्वाण पुरंमि संपत्तो ।। ३९३ || अह तंमि निव्वुए सा, देवी विसदायगेसु परिकुविया । छाया सबालबुङ्कं वीयभयं पंसुबुद्धी ॥