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________________ नयरलोएणं । आबद्धतोरणे नर- वरस्स भवणे रहो पत्तो ॥ १७२॥ अह अंतेउरमज्झे, जिणभवणं कारिऊण नरवइणा । देवाहिदेवडिमा, साविया मुहुत्ते ॥ १७३ ॥ न्हाया पवित्तगत्ता, परिहियअव्यंगधोयसियवसणा । देवी पभावई तं, जिणपडिमं पूयइ तिसंज्झं ॥ १७४ ॥ अखंडतंदुलेर्हि, तह पुरओ अट्टमंगले लिहइ । कम्पट्टदुट्टभूय-ज्जरनासणसिद्धमंत व ।। १७५ ।। तत्तो संपन्न, विहिणा चिदणं करेऊण । नच्चेइ सयं देवी, रंगेणं अंतरंगेणं ।। १७६ ।। राया उदायणो पुण देवरंजणक अणुदि पि । वायइ कयावि पडहं, कयावि वीण असुलीणं ॥ १७७॥ अह तत्थ महात्तित्थं, जायं जिणपडिमवंदणट्टाए । लोओ चउद्दिसाणं, आगंतूणं कुणइ महिमं ।। १७८ ।। एयं पिक्खंतो वि हु, पडिबुज्झइ नेव कहवि नरनाहो । किं इक्खुवाडमज्झट्ठिओ नलो हवइ महुरत्तं १ ॥ १७९ ॥ एवं गयंमि काले, अन्नदिणे तंमि चेइयहरंमि । जाव पणञ्च्चइ देवी, वीणं वाएइ रायावि ॥ १८०॥ ता देवीए सीसं निवो न पिक्खेइ तो मणे खुहिओ । चितइ अरिमेयं, हविस्सई किंपि देवीए ॥ १८१ ॥ इय खोहेणं पडिया, वीणा हत्याउ सह पमोएण । तो देवी भणइ मए, किं सामीय ! नच्चियं दुहुं ॥ १८२ ॥ जेण तुमं हत्थाङ, वीणं मोत्तुं ठिओ सि कालमुहो । जाव न जंपइ राया, ता निब्बंधेण पुच्छेइ ॥ १८३॥ तत्तो खलंतवयणो, उदायणो तं अरिट्ठमक्खेइ । देवि ! इमं दुनिमित्तं, अप्पा उत्तं कहइ तुज्झ ॥ १८४॥ भणियं पभावईए, सामिय! मह सुचिर चिन्नधम्माए । तव नियमसुट्टियाए, अणिट्ठसोगो न होइ जओ ॥ १८५ ॥ सुच्चा ते जियलोए, जिणवयणं जे नरा न याणंति । सुच्चाणवि ते सुच्चा, जे नाऊणं न वि करंति ॥ १८६ ॥ किंच इमं दुनिमित्तं, मह परमाणंदकारणं जायें । जं नायनियडमरणा, बाढं धम्मे जइस्सामि ।। १८७ ।। इय भणिऊणं देवी, निय भीरुत्तं च अपिअं रन्नो । अभया गया सभवणं, राया वि पियामरणभीओ ॥ १८८ ॥ अह अन्नदिणे देवी, विहियसिणाणा समाइसइ दासिं । अप्पेसु धोयपुत्ति, अह तीए अप्पिया जाव ॥ १८९ ॥ तो दिट्ठा सा रत्ता, सियावि देवीइ तो भणइ पावे ! |
SR No.600381
Book TitleDharm vidhi Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaysinhsuri, Shreeprabhsuri
PublisherHansvijayji Library
Publication Year1924
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size24 MB
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