SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 222
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्मविधि ॥१०५॥ CAROCHOCIENCP-CONGRESCAMONGOLCANCP विहीए । पुरओ य उवविसेउं, पुच्छइ नियसंसयपयाई ॥१३२॥ तत्तो य नियत्तेउं, समए गंतुं जहोचियं ठाणं । आयरइ अत्थ प्रकरणम् चिंतं. सो गिहिधम्माविरोहेण ॥ १३३ ॥ तो मज्झण्हियपूयं, काउं भत्तीइ विहियमुणिदाणे । भुत्तुं तबिन्नहि, सह सत्थत्थे वियारेइ ॥ १३४ ॥ पुणरवि संझासमए, कयजिणपूओ विमुक्सावज्जो । विहियावस्सयकम्मो, सज्झायं कुणइ संविग्गो ॥ १३५ ॥ तो पत्थुयंमि काले, जिणमहरिसिनामसुमरणपवित्तो । सेवइ अप्पं निई सो, पयदिणेसु कयबंभो ।। १३६ ॥ एवं सुरदत्तगिही, गिहत्थधम्म विहीइ पालंतो । निम्मवइ चेइयाई, तह जिन्नाई समुद्भरइ ।। १३७ ॥ कारइ जिविवाई, लिहाविउं पुत्थयाइँ वाएइ । तह साहुसाहुणीणं, वियरइ वत्थासणाईयं ॥ १३८ । सावयसावियवग्गं, सम्माणतो सया वि सुरदत्तो । गिहिधम्माउ सुरेहि वि, अखोहणिज्जो गमइ कालं ॥ १३९ ॥ इत्तो य पढमकप्पे, सोहम्मसुराहिवो नियसहाए । सुरदत्तं गिहिधम्मे, निच्चलचित्तं पसंसेइ ॥ १४० ॥ सोऊण तं पसंसं, देवदुगं चिंतर कह गिही वि । वन्निज्जइ इंदेणं, ता ददुव्यो स अम्हेहिं ॥१४१॥ इय चिंतिऊण पत्ता, ते दोवि सुरा पुरीइ चंपाए । पिक्खंति य सुरदत्तं, समागयं बाहिभूमीए ।। १४२ ॥ तो विहियसाहुवेसा, करयलपरिगहियपरसुणो दो वि । छिदंता तरुमेग, अप्पाणं तस्स दसति ।। १४३ ।। सो वि हु ते दट्टणं, विम्हियहियो समीवमागंतुं । अमओवमवयणेहिं, गुरु ब्व पडिवोहिउं लग्गो ॥ १४४ ॥ भो भो महाणुभावा ! चिंतारयणं व संजमं दुलहं । लहिऊण कहं हारह, तरुछेयणपावतकोण? ॥ १४५॥ किं च सयं काउमिमं, सारंभाणं गिहीण वि न जुत्तं । तुम्हाण विसेसेणं, समग्गसावज्जविरयाणं ॥ १४६ ॥ तो भणइ मुणी एगो, सावय ! सव्वंपि जाणिमो अम्हे । किंतु तुमं परमत्थं, न मुणसि कुग्गाहगहगहिओ ॥ १४७ ।। भद्द ! चिरं अम्हेहिं, वयपासंडेण वि नडिओ अप्पा । गिहिणो य तुह सरिच्छा, भमाडिया विविहजुत्तीहि ||॥१०५॥ ROCAL-NCREGCO-CANCLUCANCOMCO
SR No.600381
Book TitleDharm vidhi Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaysinhsuri, Shreeprabhsuri
PublisherHansvijayji Library
Publication Year1924
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy