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धर्मविधि
प्रकरणम्
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ARCHISHASHISHA
क्खणत्यं गया तहिं कोसा। लायनरयणकोसा, बंदिय पुरओ निविट्ठा य ॥ १५३ ॥ अह थूलभद्दरोडियमयणेण मुणित्ति जाइवयराओ। वेसाकडक्खभल्लीहि, सो मुणी तक्खणं विद्धो ॥ १५४ ॥ तत्तो विमुक्कसत्तो, तीए रत्तो अणंगमयमत्तो । सहस च्चिय तं पिच्छइ, उक्कोसा चिंतइ मणम्मि ॥१५५ ॥ चिन्नायविसयदोसो, बहुविहतवचरणरइयतणुसोसो । अगणियमुणिवरवेसो, हीही कह जंपए एसो ? ॥ १५६ ॥ जो पुव्वकीलियाई, सुमराविय पत्थिओ मए विविहं । न उण मणेणऽवि खुभिओ, तस्स नमो थूलभद्दस्स ॥ १५७ ॥ ता सहस चिय खुहियं, एयं बोहेमि किंपि कहिऊणं । इय चिंतिय भणइ वयं, लब्भामो दम्मलक्खेण ।। १५८ ॥ भणइ मुणी अम्हाणं, कह दव्वं इत्तियं हवइ ? भद्दे !। कटुंपि सहउ एसु त्ति, चिंतिउं भणइ तं कोसा ॥ १५९ ॥ निप्पालनिवो अप्पइ, कंबलरयणं अपुव्वसाहुस्स । तं गंतूणं आणसु, सो मन्नइ तंपि कामंधो ॥ १६० ॥ पंकाउलपुहवीए, निययवयाउ व्व सो पडिखलंतो। गंतुं कंबलरयणं, निवदिनं गिहिए तत्थ ।। १६१ ॥ उण्हे करेइ सीयं, सीए उण्हत्तणं पयासेइ । मुट्ठीइवि गिहिज्जइ, कंबलरयणस्स एस कमो ॥ १६२ ॥ तो मुहिरवंसदंडे, ते खविउं जाव एइ ता मग्गे । आवेइ एस लक्खो त्ति, चोरसुयपक्खिणा भणियं ॥ १६३ ।। तव्वयणाओ जंपइ, घोरवई नियनरं दुमारूढं । किं भो पिक्खसि कत्थवि, इंतं सत्थाइयं मग्गे ? ॥ १६४ ॥ तेणवि भणियं समणं, एगं मुत्तुं न किंपि पिक्खामि । समणोऽवि तत्थ | पत्तो, निरूवियं किंपि नो लद्धं ॥ १६५॥ मुक्को य तेहि साहू, जा चलिओ ता पुणो भणइ सउणो । एसो गच्छइ लक्खो, तो चोरवई भणइ समणं ॥ १६६ ॥ अभयं तुह मे साहसु, किं अच्छइ किंपि? जेण एस सुओ। अक्खइ लक्खं जंत, हो साहू कहइ से सव्वं ॥ १६७ ॥ कंबलरयणं चिटइ, इमस्स मज्झम्मि सुहिरवंसस्स । छूढं मग्गभएणं, तो मुक्को चोरनाहेण ॥१६८।।
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