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विजयमूरीणं । पालियनियनियनियमा, संपत्ता ते महामुणिगो ॥ १३७॥ अह सिंहगुहासाहू, इंतो अब्भुढिऊण ईसिति । 8| तुह भो दुक्कर कारय :, सागयमिय जंपिओ गुरुणा ।। १३८ ॥ इयरदुगंपि हु एवं, गुरूहिं सम्माणियं अह कमेण । इंतमि |
थूलभद्दे, सहसा अन्भुटिओ मूरी ॥ १३९ ॥ भणइ य दुक्करदुक्कर-कारय! तुह सागयं महासत्त!। इय दमियरमुणिगो, गुरूण रुटा अयाणु व्ध ।। १.० ॥ चिंतति पिच्छ गुरुणो, अणुरायं कह कुणंति मंतिसुए ?। किं दुक्कराण दुक्कर-मिमस्स
सरसं जिमंतस्स ॥ १४१ ॥ परिसंतरंमि एयं, गिहिस्सामो अभिग्गरं अम्हे । इय जंपिय अन्नुन्न, सामरिसा ति तुहिक्का |॥ १४२ ॥ इय ते मच्छरसल्लेण, सल्लियावि हु भर्मति सह गुरुणा । बोलिंति अट्ठ मासे, तहेव जा पाउसो पत्तो ॥ १४३ ॥ है तो सिंहगुहासाहू, गुरुपाए पणमिउं पयंपेइ । भयवं ! मं अणुजाणह, कोसागेहमि वच्चंत ॥ १४४ ॥ तत्थ य सम्बरसेहि,
भुंजतो तीइ चित्तसालाए । परिचत्ततवविसेसो, चउमासं जाव चिट्ठामि ।। १४५ ॥ अह थूलभद्दमुणिणो, मच्छरओ एस भणइ एयंति । गुरुणा उवओगेणं, वियारिऊणं इमं भणियं ।। १४६ ॥ वच्छ अभिग्गहमेयं, मा दुक्करदुक्करं पवज्जेसु । मुत्तूग थूलभई, न खमो अन्नो इमं काउं ॥ १४७ ॥ मह दुक्करपि न इमं, कह दुक्करदुक्करं भणइ तुन्भे ? । ता गच्छामि अवस्सं, इय सो जंपइ पुणोऽवि गुरुं ॥ १४८ ॥ भणियं गुरुणा होही, भंगो भो पुव्वविहियतवसोऽवि । तो तं भारं गिण्हसु, जं मुंचसि नेव अद्धपहे ॥ १४९ ॥ तं गुरुवयणं खंभं, अवमन्निय सो गउन्ध नीहरिओ। जग्गंतमयणसिंहे, पत्तो कोसागिहवणम्मि ॥ १५० ॥ नणु थूलभद्दईसाइ, एस अब्भागओ विचिंतेउं । अन्मुहिऊण सहसा, तं वंदइ मुणिवरं विहिणा ॥ १५१ ।। सोऽवि अह चित्तसालं, वसहिं मग्गेइ साऽणुमन्नेइ । तत्थ ठियं पडिलाभइ, सहसाहारेहिं सारेहिं ॥ १५२ ॥ अह मज्झण्हे मुणिवर-परि