________________
धर्मविपि ।।८।
विसेसओ मुक्खकखीहिं॥ ११७ ॥ जेण करिकम्मचवला, लच्छी देह सुरिंदधणुसरिसं । जीय कुसग्गसंठिय-जलबिंदु. समं मणुस्साणं ॥११८॥ जलबिंबियससिमंडलमिव दुग्गिज्झं मणो मयच्छीण । दंसियदुक्खसहस्सा, विसया विसमवि
करणम विसेसंति ॥ ११९ ।। उच्चतरुसिहरदसदिसि-मिलंतबहुपक्खिसंगमसमाणो । सयणाणं संजोगो, दुग्गइमूलं च रज्जमिमं ॥ १२० ॥ इय संसारसरूवं, असारमेयं विभाविउ हियए ! सिवमुक्खसाहणसह सम्मं धम्क रेह जओ ॥१२१॥ नारयतिरियनरामरगईसु नीसेसदुक्खतवियाणं । मुत्तण मुत्तिवासं, जियाण सुक्ख न अन्नत्य ॥१२२॥ इय सोऊण भवाओ, विरत्तचित्तो निवो भणइ भय ! | काऊण रज्जसुत्थं, मुक्खत्थं पब्वइस्सामि ॥१२३ मा पडिबंध नरवर ! करेसु इय सूरिणा पवुत्तो सो । गंतूण नियावासे, विण्हुकुमार भणइ एवं ॥ १२४ ।। पुत्त ! तुमं निवळच्छि, पालमु साहेमि जेण परलोय । जंपइ विण्हुकुमारो, सुणेसु वित्तिय ताय ! ॥ १२५॥ में खिविय नरयकूवे, सयं तु नीहरसि किं इमं जुत्तं ? । ता रज्जेण न कर्ज, अहंपि तुह मग्गमणुळग्गो ॥१२६ ।। अह चिंतेइ नरिंदो, नियरज्जं कस्स संपयं देमि? । महपउमोऽवि कुमारो, न नज्जए कत्थवि गओ त्ति ॥ १२७ ।। इय चितंतो निवई, अत्थाणसभाइ जाव उवविट्ठो । ता केवि भागत, अपुचभट्टेण इय पढियं ॥ १२८ ॥ कुरुदेससमुन्भूओ, पउमुत्तररायकुळनहमयंको । दसदिसिपसरत-18 जसो, जयइ जए महपउमकुमरो ॥ १२९ ॥ इय तब्बयणं सोउ, सहसा उप्फुल्ललोयणो निवई । तस्स नियअंगळग्गं, वत्थाभरणं पयच्छेद ॥ १३० ।। सम्माणिऊण बहुयं, भट्ट उववेसि च आसन्नं । पुट्ठा कुमरपवित्ती, कहिया तेणावि जह दिहा ।। १३१ ॥ अह कहिऊण सरूवं, निययं सम्बंपि पेसिओ नमुई । कुमरस्साणयणकए, संपत्तो सोऽवि तप्पासे