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________________ श्री सूत्रकृताग दीपिका द्वि.श्रु-स्कन्धे द्वितीयमध्ययनम् उज्झित्वा बालो अज्ञो वैरस्य भागी भवति, पञ्चेन्द्रियजीवपीडातो अनर्थदण्ड उक्तः ॥६॥ अथ स्थावरान् आश्रित्य आह से जहा वा केइ पुरिसे जे इमे थांवरा पाणा भवंति तं (जहा)- इक्कडा इ वा कंढणा इ वा जंतुगा - इ वा परगा इ वा मेरगा इ वा तणा इ वा कुसा इ वा कुंबगाइ वा पव्वगा इ वा पलालए त्ति वा, ते णो पुत्तपोसणयाए नों पसुपोसणयाए नो अगारपोसणयाए नो समणमाहणपोसणयाए नो तस्स र सरीरगस्स किंचि वि परियादित्ता भवइ, से हंता छेत्ता भेत्ता लुंपइता विलुंपइत्ता उद्दवइत्ता उज्झिउं बाले वेरस्स आभागी भवइ, अणट्ठादंडे ॥७॥ यथा कश्चित् पुरुषः पथि गच्छन् निर्निमित्तं एव वृक्षादे: पल्लवादिकं दण्डादिना प्रध्वंसयति, एतदेवाह- ये अमी स्थावरा वनस्पतिकाया: प्राणिनः स्युः, तद्यथा- इक्कडादयो वनस्पतिविशेषाः तान् पत्रपुष्पफलादिनिरपेक्षः क्रीडया छिनत्ति, न पुत्रपोषणाय इत्यादि पूर्ववत् यावज्जन्मान्तरानुबन्धिनो वैरस्य आभागी भवति, अयमनर्थदण्डो वनस्पत्याश्रय उक्तः॥७॥ साम्प्रतम् अग्न्याश्रितमाह से जहा वा केइ पुरिसे कच्छंसि वा दहंसि वा दगंसि वादवियंसि वा वलयंसि ता १Dथावरपाणा २D कठणे इ वा JAM कढिणाइ वा ३ BD 'परगा इ वा' इति नास्ति ४० 'नो पसुपोसणया ई' इति नास्ति
SR No.600365
Book TitleSutrakritang Sutra Dipika Dwitiya Vibhag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarshkulgani
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year1993
Total Pages300
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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