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________________ श्री सूत्रकृताङ्गदीपिका द्वि.श्रु.स्कन्धे प्रथमाध्ययनम् आसंदीपंचमा परिसा गाम पच्चागच्छंति, एवं असतो असंविजमाणे जेसिंत असतो असंविजमाणे है। तेंसिं तं सुअक्खायं भवइ, अन्नो जीवो अन्नं सरीरं तम्हा ते एवं नो विपडिवेदेति, अयमाउसो! आया दीहेति वा हस्सेति वा परिमंडले ई वा वट्टे इ वा तंसे इ वा चउरंसे इ वा छलंसे इ वा अठैसे इ वा आयते इ वा किण्हे इ वा नीले इ वा लोहिअहालिद्दसुक्किले इ वा सुब्भिगंधे इवा, दुब्भिगंधे इ वा, तित्ते इ वा, कडुए इ वा, कषाए इ वा, अंबिले इ वा, महुरे इ वा, कक्खडे इ वा, मउए इ वा, गुरुए इ वा, लहुए इ वा, सिते इ वा, उसिणे इ वा, निद्धे इ वा, लुक्खे इ वा, एवं असेंओ असंविजमाणे जेसिं तं सुअक्खायं भवइ, अन्नो जीवो अन्नं सरीरं तम्हा ते णो एवं उवलभंति ॥१५॥ तद्यथा, ऊर्ध्वं पादतलाद् अधश्च केशाग्रमस्तकात् तिर्यक् च त्वक्पर्यन्तो जीवः, कोऽर्थः ? यदेव शरीरं स एव जीवः, न शरीरादन्यः कश्चिदात्माऽस्ति, अयं काय एवात्मनः पर्यवो अवस्थाविशेषः कृत्स्न: संपूर्णः, शरीरोपलंभे जीव एवोपलब्ध इत्यर्थः, एष कायो यावत् जीवति तावज्जीवोऽपि जीवतीत्युच्यते, एष कायो यदा मृतस्तदा जीवोऽपि मृत इति व्यपदिश्यते, यावच्छरीरं अव्यङ्गं धरति (१) Pयं (२) P तेसिअं (३) IAM इ अस्य स्थाने 'ति' ज्ञेयं (४) AM असंते
SR No.600365
Book TitleSutrakritang Sutra Dipika Dwitiya Vibhag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarshkulgani
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year1993
Total Pages300
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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