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________________ अथैको निस्त्रिंशतया गृहपत्यादिसम्बन्धिनां उष्ट्रादिनां जंघाद्यवयवान् छिन्द्यात् इत्यादि ॥४७।। से एगइओणो वितिगिंछइ, गाहावईण वा गाहावइपुत्ताण वा उट्टशालाओजाव गद्दभशालाओ वा कंटगबोंदियाहिं पडिपेहित्ता सयमेव अगणिकाएणं झामेइ जाव समणुजाण ॥४८॥ कश्चिद् उष्ट्रादिषन्धनगृहाणि दहेत् ॥४८॥ __ से एगइओ णो वितिगिंछइ, गाहावईण वा गाहावइपुत्ताण वा कुंडलं वा जाव मोत्तियं वा सयमेव अवहरइ जाव समणुजाणइ ॥४९॥ सुगमम् ॥४९॥ से एगइओ णो वितिगिंछड़, समणाण वा माहणाण वा दंडगं वा जाव चम्मकोसं वा सयमेव अवहरइ जाव समणुजाण ॥५०॥ निर्निमित्तमेव एत्कुर्यात्, व्याख्या पूर्ववत् ॥५०॥ से एगइओ समणं वा माहणं वा दिस्सा णाणाविहेहिं पावकम्मेहिं अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवइ, अदुवा णं अच्छराए अप्फालित्ता भवइ, अदुवा णं फरुसं वदित्ता भवइ, कालेण वि से अणुपविट्ठस्स असणं वा जाव नो दवावित्ता भवइ, जे ईमे भवंति वोण्णमंता भारुक्ता १D से नास्ति ॥५०॥
SR No.600365
Book TitleSutrakritang Sutra Dipika Dwitiya Vibhag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarshkulgani
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year1993
Total Pages300
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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