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श्रीसूत्रकृताङ्ग
चूर्णि: ॥१०१॥
द्वितीयश्रुतस्कन्धे द्वितीयमध्ययनम्
| जे इमे तसा पाणा भवंति ते णो अच्चाए णो अजिणाए णो मंसाए णो सोणियाए एवं हिययाए पित्ताए वसाए पिच्छाए पुच्छाए वालाए सिंगाए विसाणाए दंताए दाढाए णहाए हारुणीए अट्ठीए अट्ठिर्मिजाए, णो हिसिंसु मे त्ति, णो हिंसंति मे त्ति, णो हिंसिस्संति मे त्ति, णो पुत्तपोसणयाए णो पसुपोसणयाए णो अगारपरिवूहणताए णो समणमाहणवत्तियहेडं, णो तस्स सरीरगस्स किंचि वि परियादित्ता भवति, से हंता छेत्ता भेत्ता लुंपइत्ता विलुंपइत्ता उद्दवइत्ता उज्झिउं बाले वेरस्स आभागी भवति, अणट्ठादंडे।
[२] से जहाणामए केइ पुरिसे जे इमे थावरा पाणा भवंति, तं जहा-इक्कडा इ वा कढिणा इ वा जंतुगा इ वा परगा इ वा मोरका इ वा तणा इ वा कुसा इ वा कुच्चक्का इ वा पव्वगा ति वा पलालए इ वा, ते णो पुत्तपोसणयाए णो पसुपोसणयाए णो अगारपोसणयाए णो समणमाहणपोसणयाए, णो तस्स सरीरगस्स किंचि वि परियादित्ता भवति, से हंता छेत्ता भेत्ता लुंपइत्ता विलुंपइत्ता उद्दवइत्ता उज्झिउं बाले वेरस्स आभागी भवति, अणट्ठादंडे । __[३] से जहाणामए केइ पुरिसे कच्छंसि वा दहंसि वा दगंसि वा दवियंसि वा वलयंसि वा णूमंसि वा
॥१०१॥