SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 699
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ | एकत्रिंशं चरणविधिनामकमध्ययनम् । चरणविधानम्। श्रीउत्तरा- उवासगाणं पडिमासु, भिक्खूणं पडिमासु य। जेभिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ॥११॥ ध्ययनसूत्रे किरियासु भूयगामेसु, परमाहम्मिएसु य। जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ॥१२॥ श्रीनेमिच- गाहासोलसएहि, तहा असंजमम्मि य । जे भिक्खू जयई निचं, से न अच्छइ मंडले ॥१३॥ न्द्रीया बंभम्मि नायज्झयणेसु, ठाणेसु यऽसमाहिए। जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ॥१४॥ सुखबोधाख्या लघु इक्कवीसाए सवलेसुं, बावीसाए परीसहे । जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ॥१५॥ वृतिः । तेवीसई सूयगडे, रूवाहिएम सुरेसु य । जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ॥१६॥ पणवीसा भावणाहिं च, उद्देसेसु दसाइणं । जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ॥१७॥ ॥३४३॥ अणगारगुणेहिं च, पगप्पम्मि तहेव य । जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ॥१८॥ * पावसुयप्पसंगेसु, मोहहाणेसु चेव य । जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ॥१९॥ सिद्धाइगुणजोगेसु, तित्तीसाऽऽसायणासु य । जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ॥२०॥ व्याख्या-'एकतः' एकस्माद् विरतिं कुर्यात् , 'एकतश्च' एकस्मिंश्च प्रवर्तनम् । एतदेव विशेषत आह-असंयमात् पञ्चम्यर्थे सप्तमी निवृत्तिं च संयमे च प्रवर्तनं कुर्यादित्यनुवर्तते। 'चकारौं' समुच्चये ॥ रागद्वेषौ च द्वौ पापी पापकर्मप्रवर्तको यो भिक्षु 'रुणद्धि' तिरस्कुरुते नित्यं सः 'नाऽऽस्ते' न तिष्ठति 'मण्डले' संसारे वृद्धव्याख्यानात् । एवमुत्तरसूत्रेष्वपि नित्यमित्यादि व्याख्येयम् ॥ 'दण्डानां' मनोदण्डादीनां 'गौरवाणां च ऋद्धिगौरवादीनां 'शल्यानां' मायाशल्यादीनां त्रिकं त्रिकं यो भिक्षुस्त्यजति ॥ दिव्यांश्चोपसर्गान् , तथा तैरश्चमानुषान् उपलक्षणत्वादात्मसंवेदनीयांश्च प्रत्येक ROXOXOXXXXXXXXX ॥३४३॥
SR No.600356
Book TitleUttaradhyayanani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandracharya
PublisherPushpachandra Kshemchandra Balapurwala
Publication Year1937
Total Pages798
LanguagePrakrit
ClassificationManuscript & agam_uttaradhyayan
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy