________________
अथ चरणविधिनामकमेकत्रिंशत्तममध्ययनम् ।
चरणविधानम् ।
'अनन्तराध्ययने तप उक्तम्, तच्च चरणवत एव भवतीत्यधुना चरणमुच्यते' इति सम्बन्धस्यैकत्रिंशत्तमाध्ययनस्य चरणविधिनामकस्याऽऽदिसूत्रम्चरणविहिं पवक्खामि, जीवस्स उ सुहावहं । जं चरित्ता बहू जीवा, तिन्ना संसारसागरं ॥१॥
व्याख्या स्पष्टमेव ॥ १॥ प्रतिज्ञातमाहएगओ विरई कुजा, एगओ अ पवत्तणं । असंजमे नियत्तिं च, संजमे य पवत्तणं ॥२॥ रागहोसे य दो पावे, पावकम्मपवत्तणे । जे भिक्खू संभई निचं, से न अच्छह मंडले ॥३॥ दंडाणं गारवाणं च, सल्लाणं च तियं तियं । जे भिक्खू चयई निचं, से न अच्छइ मंडले ॥
दिवे य जे उवस्सग्गे, तहा तेरिच्छ-माणुसे । जे भिक्खू सहई निचं, से न अच्छह मंडले ॥५॥ IX|विगहा-कसाय-सन्नाणं, झाणाणं च दुयं तहा। जे भिक्खू वज्जई निचं, से न अच्छह मंडले ॥६॥
वएस डंदियत्थेसु, समिईसु किरियासु य । जे भिक्खू जयई निचं, से न अच्छह मंडले ॥७॥ लेसासु छसुकाएसु, छक्के आहारकारणे । जे भिक्खू जयई निचं, से न अच्छह मंडले ॥८॥
पिंडुग्गहपडिमासं, भयहाणेसु सत्तसु । जे भिक्खू जयई निचं, से न अच्छह मंडले ॥९॥ उ०अ०५८
मएसु बंभगुत्तीसु, भिक्खुधम्मम्मि दसविहे। जे भिक्खू जयई निचं, से न अच्छइ मंडले॥१०॥
:
: