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उत्तराध्ययन
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काले अ अतित्तिलाभे ॥ ६७ ॥ रसे अतित्ते अ परिग्गहे अ, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुट्ठि । अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ॥ ६८ ॥
व्याख्या - इहादत्तं खण्डखाद्यफलादिकं रसवद्वस्तु ॥ ६८ ॥
मूलम्—तण्हाभिभूअस्स अदत्तहारिणो, रसे अतित्तस्स परिग्गहे अ । मायामुखं वडइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ॥ ६९ ॥ मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ अ, पओगकाले अ दुही दुरं । एवं अदत्ताणि समाययंतो, रसे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो ॥ ७० ॥ रसारत्तस्स नरस्स एवं कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि । तत्थोवभोगेवि किलेसदुक्खं, निवतई जस्स क ण दुक्खं ॥ ७१ ॥ एमेव रस्संमि गओ पओसं, उवेइ दुक्खोहपरंपराओ । पचितो अ चिणाइ कम्मं, जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥ ७२ ॥ रसे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । न लिप्पई भवमज्झेवि संतो, जलेण वा पुक्खरिणीपलासं ॥ ७३ ॥ ४ ॥
द्वात्रिंशमध्ययनम्. (३२) गा६८-७३
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