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द्वात्रिंशमध्ययनम्. गा६२-६७
ABHAKARAKHARKHAND
रागस्स हेउं समणुण्णमाहु, दोसस्स हेउं अमणुण्णमाहु॥६२॥रसेसु जो गिद्धिमुवेइ तिवं,
अकालिअंपावइ से विणासं। रागाउरे बडिसविभिन्नकाए, मच्छे जहा आमिसभोगगिद्धे ॥३३॥ व्याख्या-बडिसविभिन्नकाएत्ति' बडिशं प्रान्तन्यस्तामिषो लोहकीलकस्तेन विभिन्नो विदारितः कायो यस्य स बडिशविभिन्नकायः मत्स्यो यथा आमिषस्य मांसस्य भोगे खादने गृद्ध आमिषभोगगृद्धः ॥ ६३ ॥ मूलम्-जे आवि दोसं समुवेइ तिवं, तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं । दुईतदोसेण सएण जंतू, न
किंचि रस्सं अवरज्झई से ॥ ६४ ॥ एगंतरत्तो रुइरे रसंमि, अतालिसे से कुणई पओसं । दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो ॥ ६५ ॥ रसाणुगासाणुगए
अजीवे, चराचरे हिंसइऽणेगरूवे। चित्तेहिं ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तगुरू किलि ॥६६॥ व्याख्या-अत्र चराचरान् भक्षणोपयोगिनो मृगपशुमीनपक्षिप्रभृतीन कन्दमूलफलादींश्च हिनस्ति ॥६६॥ मूलम्-रसाणुवाए ण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसन्निओगे। वए विओगे अकहिं सुहं से, संभोग