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________________ मूलम् -कायस्स फासं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुण्णमाहु । तं दोसहेउं अमणुण्णमाहु, द्वात्रिंशसमो अ जो तेसु जो वीअरागो ॥ ७४ ॥ फासस्स कायं गहणं वयंति, कायस्स फासं गहणं है। मध्ययनम्. गा७४-७९ वयंति । रागस्स हेउं समणुण्णमाहु, दोसस्स हेउं अमणुण्णमाहु ॥ ७५ ॥ फासस्स जो गिद्धिमुवेइ तिवं, अकालिअं पावइ से विणासं । रागाउरे सीअजलावसन्ने, गाहग्गहीए महिसे व रणे ॥ ७६ ॥ व्याख्या-सीअजलायसन्नेत्ति' शीतजलेऽवसन्नो निमग्नः शीतजलावसन्नो ग्राहैर्जलचरविशेषैर्गृहीतो महिप इवारण्ये, वसतौ हि कदाचित्केनचिन्मोच्येतापीत्यरण्यग्रहणम् ॥ ७६ ॥ मूलम्-जे आवि दोसं समुवेइ तिवं, तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं । दुइंतदोसेण सएण जंतू , न किंचि फासं अवरज्झई से ॥ ७७ ॥ एगंतरत्तो रुइरंसि फासे, अतालिसे से कुणई : पओसं । दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो ॥ ७८॥ फासाणुगासाणुगए अ जीवे, चराचरे हिंसइऽणेगरूवे । चित्तेहिं ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तट्ठगुरू किलिहे ॥ ७९ ॥ आवि दोसं समतापीत्यरण्यग्रहणम् ॥ ७६ लायसन्नो ग्राहैर्जलचरविशेषैर्गृहीतो मार
SR No.600346
Book TitleSavruttikam Uttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnkonwn
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages596
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_uttaradhyayan
File Size40 MB
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